रोज़गार व बेहतर ज़िंदगी की तलाश मे न चाहकर भी अपना घर परिवार छोड़कर शहरों मे आने का सिलसिला वर्षों से चलता आ रहा है। पलायन करने वाले हर व्यक्ति की दर्दनाक व्यथा को इस कविता के ज़रिये बयां करने की कोशिश की गयी है।
" बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।"
बेहतर ज़िंदगी की तलाश में
उज्जवल भविष्य की आस में,
कई सपनों से मुँह मोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
मॉ की ममता भरा दुलार है छुटा,
पिता का डांट फटकार है छुटा,
बहन की नादान तकरार से नाता तोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
बिटिया की पढ़ाई के ख़ातिर
बहन की सगाई के ख़ातिर,
पत्नि के “सपनों का घर” के ईंट चुनने चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
यारों की यारी छुटी
अमिया की फुलवारी छुटी,
दोस्तों संग जमाया ठहाकों का अड्डा हम छोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
बथुआ सरसों का साग छुटा,
मकई का अब न बाल टुटा,
मिटठे की कराही मे पकता कोन हम छोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
नौकरी की राह ऐसी,रुपयों की चाह ऐसी
आत्म पहचान बनाने के जहदोजहद मे,
सारे रिश्ते नाते तोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
ज़िंदगी का दस्तूर है ये कैसा,
कुछ पाना लगे सबकुछ खोने जैसा,
मन में यादों का लिये नासुर चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।
(प्रदीप चौहान)