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बुधवार, 11 मार्च 2020

हे मन तु क्यों भटकता है? : प्रदीप चौहान

हे मन तु क्यों भटकता है?

जागे है मन पर बोझ लिये,
बन पिंजरे का पंक्षि तु जिये।
क्यों काटे है पंख उड़ान के,
हौसलों को बेड़ियों से बाँध के।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

तेरी ये लड़ाई तो ख़ुद से है,
तु मर रहा अपनों के सुध से है।
थामें रिश्ते जो शमशान भए,
जब टूट सब अरमान गए।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

रहे दूर तो हरपल तड़पे है,
रहे पास तो हरदम झड़पे है।
क्यों अकेले में भरता आहें,
तकती मंज़िल को तेरी राहें।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

सपनें अब चकनाचुर हैं,
टूट गए सब ग़ुरूर हैं।
किसी का तु क्या साथ देगा,
जब ख़ुद से मिलों दूर है।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

प्रेम तुझे नाख़ुश करे,
पैसा ना संतुष्ट करे।
ये कैसी भूख लग आइ,
हैवानियत तुझमे दुरुस्त करे।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

सोमवार, 9 मार्च 2020

वो हर लम्हा याद आता है : प्रदीप चौहान


बंद करें जब पलकों को अपने,
चेहरा उसी का नज़र आता है।
ज़ुल्फ़ों की तंग गलियों में,
बार बार ये मन खोता है। 
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

हवा का हर झोंका,
ख़ुश्बू--एहसास कराता है।
आहट बन अरदास उसकी,
यादों के आग़ोश में ले जाता है।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

बात बात पे उसका लड़ना,
बिन बात यूँ ही झगड़ना।
प्यार के हर लफ़्ज़ को,
टकटकी नज़रों से समझना।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

बिस्तर का वो कोना,
बेसुध हो कर उसका सोना।
बाज़ूओं को मेरे तकिया बना,
मदहोशि के आग़ोश में खोना
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

इंसानियत का संहार : प्रदीप चौहान


इंसानियत का संहार

कुछ हिन्दू बन रहे 
कुछ मुसलमान बन रहे
भूलकर इंसानियत
ये शैतान बन रहे।

कुछ के निजी स्वार्थ हैं
कुछ का अपना इरादा है
मिटाकर आपसी भाईचारा
धार्मिक उदंड पे आमादा हैं।

कुछ के वोट हिन्दू हैं
कुछ के मुसलमानों का व्यापार हैं
वोट बाँट कि भ्रष्ट राजनिती में
कर रहे इंसानियत का संहार हैं।

अगर नहीं रोका इन्हें
तो उत्पात ये मचाएँगे
इंसानियत की चितावों पर
ये रोटियाँ पकाएँगे।

किया आँखो को बंद जिन्होंने
समस्या विकराल और बनाएँगे
मचेगा हैवानियत का तांडव अगर
अछूते वो भी नहीं रह पाएँगे।

आँखों में बसा जिनके क़ौम है
देखकर ये चिंगारी जो आज मौन हैं
वक़्त के गुनहगार वो कहलाएँगे
इंसानियत की मौत पर आँशु बहाएंगे।

Kavi Pradeep Chauhan