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शनिवार, 22 अक्टूबर 2022
बुधवार, 1 सितंबर 2021
लूट गया सम्मान
छिन गई तेरी रोज़ी रोटी
छिन गई तेरी पहचान
हे मेहनत की खाने वाले
लुट गया तेरा सम्मान
लाइनों में लग तु हाँथ फैलाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
बुधवार, 25 अगस्त 2021
रविवार, 18 जुलाई 2021
स्लम एक सज़ा : प्रदीप चौहान
माँ-बहनें टंकियों से जब भीख मांगती हैं
भाई-बेटों के मरे ज़मीर की सजा काटती है।
भाई-बेटों के मरे ज़मीर की सजा काटती है।
गिड़गिड़ाहट के शब्द जब लबों पे सजती है
राखी व दूध के कर्ज़ चुकाई को तरसती है।
राखी व दूध के कर्ज़ चुकाई को तरसती है।
घूंघट में पत्नियां जब खुले में शौच चलती हैं
अपनों के मरे सम्मान का अपमान सहती हैं।
अपनों के मरे सम्मान का अपमान सहती हैं।
बैठ बच्चे गली मौहल्लों में जब पार्क को तकते हैं
भाइयों के बेरुखी से शारीरिक मजबूती को तरसते हैं।
भाइयों के बेरुखी से शारीरिक मजबूती को तरसते हैं।
अवैध शराब से जब जवां नशे में लिप्त झूमते हैं
अभिभावकों की नाकामी से कलह उपजते हैं।
अभिभावकों की नाकामी से कलह उपजते हैं।
किशोर जब चोरी,झपटमारी, शॉर्टकट चुनते हैं
माँ पिता के असफल परवरिश की पोल खोलते हैं।
माँ पिता के असफल परवरिश की पोल खोलते हैं।
चंद बिगड़ैल जब खुले में कोई जुर्म रचते हैं
तमाशबीन गुनहगारों की नामर्दगी से बढ़ते हैं।
तमाशबीन गुनहगारों की नामर्दगी से बढ़ते हैं।
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021
शुक्रवार, 14 अगस्त 2020
गुरुवार, 7 मई 2020
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है। : प्रदीप चौहान
Kavi Pradeep Chauhan |
छिन गई तेरी रोज़ी रोटी
छिन गई तेरी पहचान
हे मेहनत की खाने वाले
लुट गया तेरा सम्मान
लाइनों में लग तु हाँथ फैलाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
तेरी मेहनत ने लोगों के घर बनाए
खून पसीनों से तूने महल सजाए
ख़ुद की छत के लिए जीवन भर तरसे
बेघर तेरा जीवन, बेघर तेरी क़िस्मत
तू बेघर ही मर जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
भगौड़ों के हज़ारों करोड़ माफ़ हो जाते
अमीरों को प्राइवेट जेट ले आते
तुम भुखमरी के मारो से
किराए वसूले जाते लाचारों से
चाहे पड़ जाते तेरे पैरों में छाले
हज़ारो मिल तु पैदल ही चलता रे
भूखा-प्यासा तु रास्ते में ही मारा जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
अर्थव्यवस्था की रफ़्तार के लिए
चंद घरानों के व्यापार के लिए
तुझे घर भी नहीं जाने दिया जाता है
तेरी मज़दूरी को मार कर
तेरे अधिकारों का संहार कर
तुझे बंधुआ मज़दूर बनाया जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
महामारी तेरा काल बन बैठा
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
अब भी वक्त है जाग जाना होगा
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
बुधवार, 11 मार्च 2020
हे मन तु क्यों भटकता है? : प्रदीप चौहान
हे मन तु क्यों भटकता है?
जागे है मन पर बोझ लिये,
बन पिंजरे का पंक्षि तु जिये।
क्यों काटे है पंख उड़ान के,
हौसलों को बेड़ियों से बाँध के।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
तेरी ये लड़ाई तो ख़ुद से है,
तु मर रहा अपनों के सुध से है।
थामें रिश्ते जो शमशान भए,
जब टूट सब अरमान गए।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
रहे दूर तो हरपल तड़पे है,
रहे पास तो हरदम झड़पे है।
क्यों अकेले में भरता आहें,
तकती मंज़िल को तेरी राहें।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
सपनें अब चकनाचुर हैं,
टूट गए सब ग़ुरूर हैं।
किसी का तु क्या साथ देगा,
जब ख़ुद से मिलों दूर है।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
प्रेम तुझे नाख़ुश करे,
पैसा ना संतुष्ट करे।
ये कैसी भूख लग आइ,
हैवानियत तुझमे दुरुस्त करे।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
सोमवार, 9 मार्च 2020
वो हर लम्हा याद आता है : प्रदीप चौहान
बंद करें जब पलकों को अपने,
चेहरा उसी का नज़र आता है।
ज़ुल्फ़ों की तंग गलियों में,
बार बार ये मन खोता है।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
हवा का हर झोंका,
ख़ुश्बू-ए-एहसास कराता है।
आहट बन अरदास उसकी,
यादों के आग़ोश में ले जाता है।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
बात बात पे उसका लड़ना,
बिन बात यूँ ही झगड़ना।
प्यार के हर लफ़्ज़ को,
टकटकी नज़रों से समझना।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
बिस्तर का वो कोना,
बेसुध हो कर उसका सोना।
बाज़ूओं को मेरे तकिया बना,
मदहोशि के आग़ोश में खोना।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019
इंसानियत का संहार : प्रदीप चौहान
कुछ हिन्दू बन रहे
कुछ मुसलमान बन रहे
भूलकर इंसानियत
ये शैतान बन रहे।
कुछ के निजी स्वार्थ हैं
कुछ का अपना इरादा है
मिटाकर आपसी भाईचारा
धार्मिक उदंड पे आमादा हैं।
कुछ के वोट हिन्दू हैं
कुछ के मुसलमानों का व्यापार हैं
वोट बाँट कि भ्रष्ट राजनिती में
कर रहे इंसानियत का संहार हैं।
अगर नहीं रोका इन्हें
तो उत्पात ये मचाएँगे
इंसानियत की चितावों पर
ये रोटियाँ पकाएँगे।
किया आँखो को बंद जिन्होंने
समस्या विकराल और बनाएँगे
मचेगा हैवानियत का तांडव अगर
अछूते वो भी नहीं रह पाएँगे।
आँखों में बसा जिनके क़ौम है
देखकर ये चिंगारी जो आज मौन हैं
वक़्त के गुनहगार वो कहलाएँगे
इंसानियत की मौत पर आँशु बहाएंगे।
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