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बुधवार, 25 अगस्त 2021
रविवार, 18 जुलाई 2021
स्लम एक सज़ा : प्रदीप चौहान
माँ-बहनें टंकियों से जब भीख मांगती हैं
भाई-बेटों के मरे ज़मीर की सजा काटती है।
भाई-बेटों के मरे ज़मीर की सजा काटती है।
गिड़गिड़ाहट के शब्द जब लबों पे सजती है
राखी व दूध के कर्ज़ चुकाई को तरसती है।
राखी व दूध के कर्ज़ चुकाई को तरसती है।
घूंघट में पत्नियां जब खुले में शौच चलती हैं
अपनों के मरे सम्मान का अपमान सहती हैं।
अपनों के मरे सम्मान का अपमान सहती हैं।
बैठ बच्चे गली मौहल्लों में जब पार्क को तकते हैं
भाइयों के बेरुखी से शारीरिक मजबूती को तरसते हैं।
भाइयों के बेरुखी से शारीरिक मजबूती को तरसते हैं।
अवैध शराब से जब जवां नशे में लिप्त झूमते हैं
अभिभावकों की नाकामी से कलह उपजते हैं।
अभिभावकों की नाकामी से कलह उपजते हैं।
किशोर जब चोरी,झपटमारी, शॉर्टकट चुनते हैं
माँ पिता के असफल परवरिश की पोल खोलते हैं।
माँ पिता के असफल परवरिश की पोल खोलते हैं।
चंद बिगड़ैल जब खुले में कोई जुर्म रचते हैं
तमाशबीन गुनहगारों की नामर्दगी से बढ़ते हैं।
तमाशबीन गुनहगारों की नामर्दगी से बढ़ते हैं।
बुधवार, 10 मार्च 2021
भार : प्रदीप चौहान
हद से ज्यादा भार लेकर दौड़ा नहीं जाता
साथ सारा संसार लेकर दौड़ा नहीं जाता ।
दौड़ो अकेले अगर पानी है रफ़्तार
जिम्मेदारियों का पहाड़ लेकर दौड़ा नहीं जाता।
बदलाव : प्रदीप चौहान
अकेले चल इंसान बदल जाते हैं
ले साथ चलें तो बदलाव लाते हैं।
उस सफलता के मायने ही क्या
जिसे पाते ही अपने पीछे छूट जाते हैं।
शुक्रवार, 14 अगस्त 2020
गुरुवार, 7 मई 2020
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है। : प्रदीप चौहान
Kavi Pradeep Chauhan |
छिन गई तेरी रोज़ी रोटी
छिन गई तेरी पहचान
हे मेहनत की खाने वाले
लुट गया तेरा सम्मान
लाइनों में लग तु हाँथ फैलाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
तेरी मेहनत ने लोगों के घर बनाए
खून पसीनों से तूने महल सजाए
ख़ुद की छत के लिए जीवन भर तरसे
बेघर तेरा जीवन, बेघर तेरी क़िस्मत
तू बेघर ही मर जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
भगौड़ों के हज़ारों करोड़ माफ़ हो जाते
अमीरों को प्राइवेट जेट ले आते
तुम भुखमरी के मारो से
किराए वसूले जाते लाचारों से
चाहे पड़ जाते तेरे पैरों में छाले
हज़ारो मिल तु पैदल ही चलता रे
भूखा-प्यासा तु रास्ते में ही मारा जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
अर्थव्यवस्था की रफ़्तार के लिए
चंद घरानों के व्यापार के लिए
तुझे घर भी नहीं जाने दिया जाता है
तेरी मज़दूरी को मार कर
तेरे अधिकारों का संहार कर
तुझे बंधुआ मज़दूर बनाया जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
महामारी तेरा काल बन बैठा
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
अब भी वक्त है जाग जाना होगा
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
रविवार, 18 अगस्त 2019
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे : गुलशन ठाकुर
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
इस सावन की हरियाली में
हम सब मस्ती में झूम रहे हैं
हमें नहीं भूलना उन लम्हों को
जिस कारण आज जीवन में
हम खुशियों का दामन चूम रहे हैं
जहाँ ओस की बूँदें लगे थी मोती
वहाँ भँवरों के गुलशन अब कहाँ खिलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
वो मधुर सुगंधित मीठा बचपन
जब खेलते थे गुड्डे गुड़ियों संग
वो छुट्टी में नानी घर जाना
आमों की बगिया में उधम मचाना
जहाँ होती सब गलती माफ
वो स्नेह के आँचल अब कहाँ मिलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
वो कंधे पे बस्ता टाँगे जाना
फिर एक दूजे को खूब चिढ़ाना
वो प्रेम की रोटी और अंचार
था जिनके बिन जीवन बेकार
फिर जून की तपती धूप में
हम कोयल की कूँ कूँ कहाँ सुनेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
थी चौङी छाती सिंह की चाल
जब चार यार मिल करे धमाल
तब अल्हड़ मस्त जवानी थी
जीवन के हर दौर में
बस अपनी ही मनमानी थी
वो मौसम प्रेम कहानी के
अब हमें ओ यारा कहाँ दिखेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
कोई लौटा दो मेरे वो दिन
वो मस्ती बचपन की वो प्रेम के दिन
जो हो गई पूरी अपनी आस
हम तितली सा फिर उड़ चलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
Gulshan Thakur
रविवार, 11 अगस्त 2019
एक प्रेम कहानी लिखें फिर कश्मीर में : गुलशन ठाकुर
इन वादियों की सुर्ख हवा में
देखो बस्ता कोई नूर है
जिसे धरती का हम स्वर्ग है कहते
क्यों सबकी पहुँच से ये दूर है
सोचना क्या है होगा ही वो
जो लिखा है तकदीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कशमीर में
क्यों अमन यहाँ सब लूट रहे हैं
खुद में लड़कर ही क्यों भला
हम टुकड़ों में यूँ टूट रहे हैं
कहाँ गए वो मौसम रूमानी
जहां बहता था झीलों में पानी
हर राँझा खोया रहता था
जहाँ अपनी प्यारी सी हीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में
लो हुई खत्म धारा 370
फीर एक नया कश्मीर बनाएं
जहाँ होते थे हमले आतंकी
वहाँ प्रगति का हम दीप जलायें
अब नही चलेगा पत्थर कोई
झूठे जिहाद की भीड़ में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में
सालों से Aदेखा जो सपना
आज हुआ है पूरा अपना
है आज दिवाली और ईद भी
किस्मत से आया ये शुभ दिन है
ऐसे ही नहीं कहती दुनिया
मोदी है तो मुमकिन है
है मिला कुशल प्रशासक हमको
इस मोदी से फकीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में
शुक्रवार, 19 जुलाई 2019
मैं एक लड़की हूँ : गुलशन ठाकुर
ये कविता मेरे एक फेसबुक मित्र श्री गुलशन ठाकुर के द्धारा लिखी गई है और उनके फेसबुक पेज से ली गई है। ये कविता मेरे दिल के बहुत करीब है, इसे बार बार पढ़ने के साथ-साथ आप लोगों के साथ सांझां करने योग्य है।एक बार आप भी पढ़ें।
मैं एक लड़की हूँ
एक दर्द सा है मेरी आँखों में
जिसे ढकने की मैं कोशिश करती हूँ
क्या है कसूर इस दुनिया में मेरा
क्यों जीने को मैं पल पल मरती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
मुझे नहीं चाहिए धन दौलत
न हूँ मैं पत्थर की मूरत
बस लोग खिलौना समझे मुझको
फिर देवी रूप में पूजते किसको
जो मुझको सब हैं बेटी मानें
फिर क्यों अपनों से मैं पल पल डरती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
जिसने है तुमको बनाया
है उसने ही कन्या बनायी
फिर करते हो क्यों भेद जरा
ये तो सबको बतला दो भाई
जब मुझमें ही तुम देखो लक्ष्मी
फिर क्यों दहेज़ के ताने मैं
दुनिया से पल पल सहती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
बस मुझे चाहिए प्यार तुम्हारा
चाहे मिले न कोई और सहारा
मानो तुम सबको एक समान
प्यार तुम्हारा पाकर देखो
कैसे बनती है बेटी महान
न बहे किसी कन्या के आंसू
बस यही प्रार्थना मैं करती हूँ
है हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
बेटियों पर गर्व करें शर्म नहीं
(श्री गुलशन ठाकुर)
शनिवार, 22 जून 2019
मंगलवार, 21 मई 2019
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है : रमेश आनन्दानी
श्री रमेश आनन्दानी सर द्वारा, “ राष्ट्रीय युवा दिवस ” के अवसर पर रचित एक कविता । जो फ़ेस्बुक पोस्ट से प्राप्त हुई। और युवाओं को प्रेरणा देती, उनमें जोश भरती एक बेहतरीन कविता है।
तुम युवा हो, तुम में जोश है
स्वयं को पहचानो तुम में होश है
आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ो
आकाश तुमने छूना है
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है
अंतर न करो युवक युवती में
दोनों का लक्ष्य एक ही है जीवन में
साथ मिलकर चलेंगे तो आसान होगा
पत्थरों पर चलना दूब समान होगा
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |
पृथ्वी चल रही है चाँद भी चल रहा है
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति चल रहा है
तुम्हें तो जुनून है मंज़िल को पाने का
फिर साथ रौशनी का हो या अन्धेरे का
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |
सफलता की राह में रोड़े बड़े मिलेंगे
धर्म और राजनीति के धोखे बड़े मिलेंगे
अपने सपनों व इरादों को विशाल करो
देश की सेवा के विश्वास को मशाल करो
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |
श्री रमेश आनन्दानी
तुम युवा हो, तुम में जोश है
स्वयं को पहचानो तुम में होश है
आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ो
आकाश तुमने छूना है
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है
अंतर न करो युवक युवती में
दोनों का लक्ष्य एक ही है जीवन में
साथ मिलकर चलेंगे तो आसान होगा
पत्थरों पर चलना दूब समान होगा
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |
पृथ्वी चल रही है चाँद भी चल रहा है
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति चल रहा है
तुम्हें तो जुनून है मंज़िल को पाने का
फिर साथ रौशनी का हो या अन्धेरे का
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |
सफलता की राह में रोड़े बड़े मिलेंगे
धर्म और राजनीति के धोखे बड़े मिलेंगे
अपने सपनों व इरादों को विशाल करो
देश की सेवा के विश्वास को मशाल करो
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |
श्री रमेश आनन्दानी
रविवार, 24 मार्च 2019
शनिवार, 9 मार्च 2019
शनिवार, 23 फ़रवरी 2019
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम : प्रदीप चौहान
युवाओं को राह दिखाया
हक़ के लिए लड़ना सिखाया
जब जब क़दम इनके लड़खड़ाए
ऊँगली पकड़ संभलना सिखाए
मार्गदर्शन से दिलाए कई मुक़ाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।
महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाया
किशोरियों को आगे बढ़ना सिखाया
पुरुष प्रधान बीमारी का किया काम तमाम
कुंठित मर्यादाओं का ख़त्म नामों निशान
समानता के रण में किये हांसिल कई मुक़ाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।
हक़ और सम्मान की लड़ी लड़ाई
बुनियादी ज़रूरतों की माँग उठाई
व्यवस्था परिवर्तन का लिए अरमान
राजनीतिक गलियरों को दिए कई फ़रमान
राजनीतिक गलियरों को दिए कई फ़रमान
सैकड़ों आंदोलनों को दिया तुमने मुक़ाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।
बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ अनसन किए
न्यूनतम वेतन के लिए प्रदर्शन किए
किसानों के हक़ की लड़ी लड़ाई
सैनिकों के पेन्शन की आवाज़ उठाई
निंदित सरकारों का किया जीना हराम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।
तुमने कभी झुकना नहीं सिखा
तुमने कभी टूटना नहीं सिखा
शोषण के ख़िलाफ़ की बुलंद आवाज़
दमन का डगमगाया साम्राज
हक़ की लड़ाई के तुम कलाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।
मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019
जिस राह पर हम कभी मिला करते थे : रमेश आनन्दानी
स्वरचित ग़ज़ल
जिस राह पर हम कभी मिला करते थे
वहां के मंज़र अब भी वैसे ही खड़े हैं
तुम तो मुस्कुरा कर आगे मुड़ गए थे
हम अब भी वक्त को थामे वहीँ खड़े हैं |
सोचते हैं कभी शायद कोई बहार आएगी
जो तेरी साँसों से मंज़र को महकाएगी
कभी तो कोई हवा इस मोड़ की तरफ आएगी
जो तेरे शहर की खुशनुमा खबर लाएगी |
कभी तो यहाँ के गुलशन महका करते थे
अब तो वे भी तुम्हारी नज़रों का इंतज़ार करते हैं
हमारी खातिर तो तुमने कभी इधर का रुख किया नहीं
इन गुलों पर ही करम करो जो तबसे राह तकते हैं .
झूमकर जिन कदमों के साथ कभी हम चले थे
यह राहें अब भी उन कदमों को याद करती हैं
कभी फिर लौटकर आओगे इन फ़िज़ाओं में
इस उम्मीद से हर लम्हा, हर शय याद करती है |
याद करो उन रिमझिम बरसातों को
जिन में अक्सर हम भीगा करते थे
वो बरसातें हर बार सावन में
झूम - झूमकर तुम्हें याद करती हैं
जिस राह पर हम कभी मिला करते थे
वहां के मंज़र अब भी वैसे ही खड़े हैं
तुम तो मुस्कुरा कर आगे मुड़ गए थे
हम अब भी वक्त को थामे वहीँ खड़े हैं |
सोचते हैं कभी शायद कोई बहार आएगी
जो तेरी साँसों से मंज़र को महकाएगी
कभी तो कोई हवा इस मोड़ की तरफ आएगी
जो तेरे शहर की खुशनुमा खबर लाएगी |
कभी तो यहाँ के गुलशन महका करते थे
अब तो वे भी तुम्हारी नज़रों का इंतज़ार करते हैं
हमारी खातिर तो तुमने कभी इधर का रुख किया नहीं
इन गुलों पर ही करम करो जो तबसे राह तकते हैं .
झूमकर जिन कदमों के साथ कभी हम चले थे
यह राहें अब भी उन कदमों को याद करती हैं
कभी फिर लौटकर आओगे इन फ़िज़ाओं में
इस उम्मीद से हर लम्हा, हर शय याद करती है |
याद करो उन रिमझिम बरसातों को
जिन में अक्सर हम भीगा करते थे
वो बरसातें हर बार सावन में
झूम - झूमकर तुम्हें याद करती हैं
गुरुवार, 6 दिसंबर 2018
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों : प्रदीप चौहान
छोटे छोटे कमरों में
जी रहे बन तुम लाचार
न स्नान का कोई प्रबंध
न शौच का कोई आधार
बुनियादी जरूरतों के मार झेलते जलिलों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।
छोटी बहनें जाएं शौच खुले
सहती मनचलों के आघात
सत्ताधारी नही दे रहे सीवर की सौगात
कर पाएं सम्मान की उनके रक्षा
क्या इतनी भी नहीं औकात
हे राखी का कर्ज़ भूले फकीरों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।
नहीं करते पार्क की व्यवस्था
न बनाते खेल का मैदान
नुक्कड़ गलियों पे हो इकट्ठा
खेल रहे किशोर अब सट्टा
क्यों चुप बैठे तुम बधिरों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।
न करते नौकरी की व्यवस्था
न करते रोजी रोटी का उपचार
न लाते न्यूनतम मजदूरी
कर रहे शोषण का प्रहार
क्यों बैठे तमाशबीन हे कुपोषित अमीरों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।
खालीपन खुशियों को खा रहा
जवां पीढ़ी अवसाद में जा रहा
बेरोजगारी की ऐसी पड़ रही मार
नौजवां हो रहे नशे में शुमार
क्यों सह रहे सब साक्षर धिरों
हक़ के लिये लड़ो स्लम के विरों।
(प्रदीप चौहान)
सोमवार, 8 अक्टूबर 2018
अराजकता बढ़ाया जा रहा : प्रदीप चौहान
बुद्धिजीवियों को धमकाया जा रहा
सामाजिक कायकर्ताओं को डराया जा रहा
कि चलता रहे खास तबके का राज़
कि न उठाये कोई दबे कुचलों की आवाज़
फर्जी आरोपों में करके गिरफ्तारियां
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
सामाजिक कायकर्ताओं को डराया जा रहा
कि चलता रहे खास तबके का राज़
कि न उठाये कोई दबे कुचलों की आवाज़
फर्जी आरोपों में करके गिरफ्तारियां
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
धार्मिक भावनाओं को उकसाया जा रहा
"एक तबका" निशाना बनाया जा रहा
भीड़ को देकर सनकी अभिमान
गुनाहगारों की न करता कोई पहचान
सियासी मंसूबों की पूर्ति के लिए
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
"एक तबका" निशाना बनाया जा रहा
भीड़ को देकर सनकी अभिमान
गुनाहगारों की न करता कोई पहचान
सियासी मंसूबों की पूर्ति के लिए
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
"बेरोजगारी" मुद्दे से भटकाया जा रहा
"शिक्षा में असफलता" से ध्यान हटाया जा रहा
कि न कर पाए कोई असल मुद्दों पर चर्चा
किया जा रहा मोब लींन्चिंग खबरों पर खर्चा
पुलिस पर लगा पाबंदियां अपार
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
"शिक्षा में असफलता" से ध्यान हटाया जा रहा
कि न कर पाए कोई असल मुद्दों पर चर्चा
किया जा रहा मोब लींन्चिंग खबरों पर खर्चा
पुलिस पर लगा पाबंदियां अपार
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
अमीरों को फायदा पहुंचाया जा रहा
हर क्षेत्र, निजी हांथों में लुटाया जा रहा
राज्य की हो रही कठपुतली पहचान
कुछ घरानों के हांथ है देश की कमान
कानून को कर कमजोर व लाचार
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
हर क्षेत्र, निजी हांथों में लुटाया जा रहा
राज्य की हो रही कठपुतली पहचान
कुछ घरानों के हांथ है देश की कमान
कानून को कर कमजोर व लाचार
अराजकता बढ़ाया जा रहा।
प्रदीप चौहान
गुरुवार, 6 सितंबर 2018
क्यों सो रहा तू नौजवान। : प्रदीप चौहान
क्यों सो रहा तू नौजवान।
न हो करियर में असमंजस
कि दूर तक तुझे है जाना
न रख कोई बैर न रंजिश
कि तुझे खुद को नहीं उलझाना
तुझमे है जज्बा रच सफलता का इतिहास
क्यों सो रहा तू नौजवान।
अपनी क्षमताओं का स्मरण कर
अपनी कमियों का तू मरण कर
तू सिख नित नए हुनर
अपनी अच्छाइयों की बुनियाद पर
चल गगन पर तू परचम लहरा
क्यों सो रहा तू नौजवान।
है करियर में भटकाव बहोत
हर मोड़ पर टकराव बहोत
उलझनें मिलेंगी हर कदम
अड़िग बना तेरी इच्छाशक्ति और दम
तू जीत सकता है सबको पछाड़
क्यों सो रहा तू नौजवान।
सुलगाई जा रही धर्म की चिंगारी दिलों में
लगाई जा रही हिन्दुत्व की आग सीनों में
कुछ अपने निजी स्वार्थ के लिए
बिछा रहे बिसात विध्वंस की
इस भस्मासुर को न होने दे विकराल
क्यों सो रहा तू नौजवान।
मुद्दे से तुझको भटकाया जा रहा
बुनियादी जरूरतों के लिए तरसाया जा रहा
चुनाव में तुझको भुनाया जा रहा
छोटी छोटी मांगों के लिए नचाया जा रहा
छोटी छोटी मांगों के लिए नचाया जा रहा
न मरने दे तेरा ज़मीर, तू बन खुद्दार
क्यों सो रहा तू नौजवान।
शोषण अपने चरम पर है
दमन का हर जगह परचम है
लूट खसोट बना सबसे बड़ा व्यापार है
बेसब्री बन रहा युवाओं का जंजाल है
न बनने दे भ्रष्टाचार लोगो की पहचान
क्यों सो रहा तू नौजवान।
शुक्रवार, 15 जून 2018
पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा: प्रदीप चौहान
जगमगाती दिल्ली का ये रूप कैसा,
पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा!
सबको बुनियादी हक भी जहां मिलते नहीं,
झुग्गियां हैं वोटबैंक, पॉलिटिक्स और पैसा !!
जागें हर सुबह मन पर बोझ लादे
पानी है आज पाना बस यही जोर जागे!
मस्तिष्क रहे सचेत, आखें हरदम टेंकर को ताकें
रखें कान खड़ा हर आवाज टेंकर की आहट सा लागे !!
लिये टंकी बाल्टियां चल पड़ें सब रोड पर
लटकाये कंधों पर पाइपे, रहें घंटो खडे़ पानी की खोज पर
कभी ताकें अपने बर्तन तो, कभी उमडी़ भीड़ भाड़ को,
सुन हौरन सब दौड़ं चले चढ़ने पानी की ताड़ पर !!
मचे भगदड़ ऐसे, भीड़ भागे आंधी के जैसे
बच्चें औरत व जवान ले दौड़े सब अपना सामान !
बर्तनों का नगाड़ा बाजे, शोर हूँकारे बेशुरी तान,
पाइपों से खिंचतान जैसे अमल हो लुट का फरमान !!
पाइपों में आया पानी जब भगने लगे
अधभरे बर्तन देख अफसोस की लकीरें जगें।
मुश्किल से ढुँढे़ सब अपने खोये हुए बर्तन,
बिल्कुल ना पाने वालों के आंसू छुटने लगे!!
चुनाव का मुददा यही होता है बार-बार
भरपूर शु़द्ध गंगाजल, घर-घर मिलेगा अबकी बार
उम्मीदवार बदलें, पार्टी बदली, बदली पुरी सरकार
ना झुग्गियों के हालात बदलें, ना पानी की ये हाहाकार !!
पानी की ये किल्लत नासुर बन बैठा
सुखे में सारा बचपन, जवानी भी सुखार जैसा
कचोटे है यहां बसने की मजबुरी हरपल
जीवन लगे है यहां अब नर्क के जैसा !!
अब तो ये सौगन्ध आओ खायें
भावी पीढी को सब मिलकर बचायें !
शोषण व भ्रष्टाचार मुक्त सामाज के लियें
चलें क्रांति की राह पर और सता अपने हाँथ में लायें !!
जगमगाती दिल्ली का ये रूप कैसा
पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा !
सबको यहां बुनियादी हक भी जहां मिलते नहीं
झुग्गियां बनी वोटबैंक, पॉलिटिक्स व पैसा !!
प्रदीप चैहान
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