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शुक्रवार, 24 मई 2024

नज़रों का मिलना


चमक

स्वयं की चमक बनाने के लिए तुझे जलना होगा 
अड़चने लाख आएं पर स्वयं ही संभलना होगा।
बुरे हालात पर तेरे हंसेंगे रोज कई जमाने वाले,
पर शिखर पर पहुंचने को तुझे चलते रहना होगा।

खामोशी

कड़वी बातें उसकी त्रिशूल सी चुभती हैं,
हरकतें उसकी अब शूल सी चुभती हैं।
क्यों न दिया उसकी भाषा मे ही जवाब,
खामोशी अपनी बड़ी भूल सी चुभती है।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

Pradeep Chauhan

Kavi Pradeep Chauhan

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Kavi Pradeep Chauhan Pradeep Chauhan

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रविवार, 21 नवंबर 2021

नशे की गिरफ्त में बच्चे : प्रदीप चौहान

क्यों नहीं सीखते कोई हुनर?
क्यों बर्बाद कर रहे ये उमर?
फूलों में है बहार सुनो।
भवरों की हूंकार सुनो।
सुनो मंजिलें तुम्हें पुकारती।
चलो की राहें तुम्हें पुकारती।
उठो जीवन को सवारना है।
जागो हालातों को सुधारना है।
मेरे भाई क्यों तुम भटक गए?

प्रदीप चौहान

बुधवार, 1 सितंबर 2021

लूट गया सम्मान

छिन गई तेरी रोज़ी रोटी
छिन गई तेरी पहचान 
हे मेहनत की खाने वाले 
लुट गया तेरा सम्मान 
लाइनों में लग तु हाँथ फैलाता है 
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।

बुधवार, 10 मार्च 2021

भार : प्रदीप चौहान

 हद से ज्यादा भार लेकर दौड़ा नहीं जाता 

साथ सारा संसार लेकर दौड़ा नहीं जाता ।

दौड़ो अकेले अगर पानी है रफ़्तार

जिम्मेदारियों का पहाड़ लेकर दौड़ा नहीं जाता।



बदलाव : प्रदीप चौहान

 अकेले चल  इंसान बदल जाते हैं

ले साथ चलें  तो बदलाव लाते हैं।

उस  सफलता  के  मायने  ही  क्या

जिसे पाते ही अपने पीछे छूट जाते हैं।



गुरुवार, 7 मई 2020

हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है। : प्रदीप चौहान

Kavi Pradeep Chauhan 
छिन गई तेरी रोज़ी रोटी
छिन गई तेरी पहचान 
हे मेहनत की खाने वाले 
लुट गया तेरा सम्मान 
लाइनों में लग तु हाँथ फैलाता है 
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।

तेरी मेहनत ने लोगों के घर बनाए
खून पसीनों से तूने महल सजाए
ख़ुद की छत के लिए जीवन भर तरसे
बेघर तेरा जीवन, बेघर तेरी क़िस्मत 
तू बेघर ही मर जाता है 
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।

भगौड़ों के हज़ारों करोड़ माफ़ हो जाते 
अमीरों को प्राइवेट जेट ले आते
 तुम भुखमरी के मारो से 
किराए वसूले जाते लाचारों से 
चाहे पड़ जाते तेरे पैरों में छाले
हज़ारो मिल तु पैदल ही चलता रे
भूखा-प्यासा तु रास्ते में ही मारा जाता है 
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।

अर्थव्यवस्था की रफ़्तार के लिए 
चंद घरानों के व्यापार के लिए 
तुझे घर भी नहीं जाने दिया जाता है 
तेरी मज़दूरी को मार कर 
तेरे अधिकारों का संहार कर 
तुझे बंधुआ मज़दूर बनाया जाता है 
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
 
महामारी तेरा काल बन बैठा
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों  के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है। 

अब भी वक्त है जाग जाना होगा
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता
तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।


बुधवार, 11 मार्च 2020

हे मन तु क्यों भटकता है? : प्रदीप चौहान

हे मन तु क्यों भटकता है?

जागे है मन पर बोझ लिये,
बन पिंजरे का पंक्षि तु जिये।
क्यों काटे है पंख उड़ान के,
हौसलों को बेड़ियों से बाँध के।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

तेरी ये लड़ाई तो ख़ुद से है,
तु मर रहा अपनों के सुध से है।
थामें रिश्ते जो शमशान भए,
जब टूट सब अरमान गए।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

रहे दूर तो हरपल तड़पे है,
रहे पास तो हरदम झड़पे है।
क्यों अकेले में भरता आहें,
तकती मंज़िल को तेरी राहें।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

सपनें अब चकनाचुर हैं,
टूट गए सब ग़ुरूर हैं।
किसी का तु क्या साथ देगा,
जब ख़ुद से मिलों दूर है।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

प्रेम तुझे नाख़ुश करे,
पैसा ना संतुष्ट करे।
ये कैसी भूख लग आइ,
हैवानियत तुझमे दुरुस्त करे।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?

सोमवार, 9 मार्च 2020

वो हर लम्हा याद आता है : प्रदीप चौहान


बंद करें जब पलकों को अपने,
चेहरा उसी का नज़र आता है।
ज़ुल्फ़ों की तंग गलियों में,
बार बार ये मन खोता है। 
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

हवा का हर झोंका,
ख़ुश्बू--एहसास कराता है।
आहट बन अरदास उसकी,
यादों के आग़ोश में ले जाता है।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

बात बात पे उसका लड़ना,
बिन बात यूँ ही झगड़ना।
प्यार के हर लफ़्ज़ को,
टकटकी नज़रों से समझना।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

बिस्तर का वो कोना,
बेसुध हो कर उसका सोना।
बाज़ूओं को मेरे तकिया बना,
मदहोशि के आग़ोश में खोना
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

इंसानियत का संहार : प्रदीप चौहान


इंसानियत का संहार

कुछ हिन्दू बन रहे 
कुछ मुसलमान बन रहे
भूलकर इंसानियत
ये शैतान बन रहे।

कुछ के निजी स्वार्थ हैं
कुछ का अपना इरादा है
मिटाकर आपसी भाईचारा
धार्मिक उदंड पे आमादा हैं।

कुछ के वोट हिन्दू हैं
कुछ के मुसलमानों का व्यापार हैं
वोट बाँट कि भ्रष्ट राजनिती में
कर रहे इंसानियत का संहार हैं।

अगर नहीं रोका इन्हें
तो उत्पात ये मचाएँगे
इंसानियत की चितावों पर
ये रोटियाँ पकाएँगे।

किया आँखो को बंद जिन्होंने
समस्या विकराल और बनाएँगे
मचेगा हैवानियत का तांडव अगर
अछूते वो भी नहीं रह पाएँगे।

आँखों में बसा जिनके क़ौम है
देखकर ये चिंगारी जो आज मौन हैं
वक़्त के गुनहगार वो कहलाएँगे
इंसानियत की मौत पर आँशु बहाएंगे।

Kavi Pradeep Chauhan