शनिवार, 30 मार्च 2024

उनके चेहरे का खिलना कुछ तो कहता है : प्रदीप चौहान


आंखों को हमारे वो पढ़ नहीं पाते
 ये होंठ उनसे कुछ कह नहीं पाते
 दिल का हाल बयां कैसे करें यारों 
उनसे फासला अब सह नहीं पाते।

इंतजार में उनके यह दिल तड़पता है।
दीदार को उनके यह दिल तरसता है l
ऐसा क्या करें कि वह हमारे हो जाए,
इकरार को उनके यह दिल तरसता है।

पड़ोसियों से अड़चने तेज हो जाती हैं
गलियों में धड़कनें तेज हो जाती हैं
मिलना उनसे इस कदर हुआ है मुश्किल
दर उनके गर भटके तो जेल हो जाती है।

यह कहानी अब अधूरी ही रह जाएगी
यह तड़प अब गैरजरूरी ही रह जाएगी
ऐसा हो कि बस इक बार मिलना हो जाए
हीर रांझा के बिना ही अब मर जाएगी।

उनसे नजरों का मिलना कुछ तो कहता है 
उनके लबों का मचलना कुछ तो कहता है
हमारी चाहत का लगता असर है प्रदीप्त 
उनके चेहरे का खिलना कुछ तो कहता है।

प्रदीप चौहान 

किताबों से : प्रदीप चौहान

जिंदगी के कुछ पन्ने जो रह गए बिन पढ़े,
सीखो लेखन का हर सलीक़ा, किताबों से।

दबी है कुछ कर गुजरने की आग गर सीने में,
जानों कथन का नया तरीका, किताबों से।

गरीबी की मार कराता है दर-दर अपमान
सीखो हुनर से निर्धनता मिटाना, किताबों से।

गैर बराबरी ने उपजे हैं बड़ी समस्याएं देश में
सीखो बराबरी का दीप जलाना, किताबों से।

मोबाइल की अति बनी अभिशाप मनुष्य की,
बदल दो भटकाव का ये जंजाल, किताबों से।

सोशल मीडिया करता भस्म समय कीमती,
रोको इस भस्मासुर का परचम लहराना, किताबों से

व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ज्ञान कराता अपमान 
सीखो तथ्यों से समझाना, किताबों से।

गोदी मीडिया का दुष:प्रचार करता प्रहार
सीखो स्वयं को निरंतर बचाना, किताबों से।

जाति, धर्म, मजहब के नशे में न हों तुम लीन 
सीखो अंधभक्ति का ज़हर हटाना, किताबों से।

उच्च नीच की असमानता आज बन बैठा है नासूर
सीखो इस बीमारी को जड़ से मिटाना, किताबों से।

असहमति ने जन्मे हैं हर नए अविष्कार देश में
सीखो नाखुश सुरों को एकसाथ लाना, किताबों से।

मनुष्य की जिज्ञाशा ने बनाया अन्य जीवों से श्रेष्ठ
सीखो मनुष्यता को ऊपर उठाना, किताबों से।

ज्ञान है इक आधार जो बदल दे हर हालात,
करो अर्जित इल्म का खज़ाना, किताबों से।

जागो, पढ़ो, बढ़ो, करो हांसिल हर मंज़िल,
लिखो सफलता का अफसाना, किताबों से।

प्रदीप चौहान

गुरुवार, 11 मई 2023

ये धर्म युद्ध है: रोशन सिंह


आज यह कलयुग है!

चारो ओर फैला

धर्म युद्ध है

दो वर्गों के बीच है ये धर्म युद्ध

हां! दो वर्गों में!


एक वो जो सब बनाते हैं!

एक वो जो जो सब दबा जाते हैं!

ये कोई नया युद्ध नहीं है

ये तो सदियों से छिड़ा हुआ है!

कभी जीतते हैं हम

जो सब बनाते हैं!

हारते हैं कभी वो

जो सब लूटते हैं

वो हारे हैं

कई बार

और फिर हारेंगे 17 की तरह

और हम 1फिर जीतेंगे 17 की तरह

45 की तरह,

क्योंकि हम सब बनाते हैं!

तो सब के मालिक भी हम ही हैं

क्योंकि हम मज़दूर वर्ग हैं!


रोशन सिंह

बुधवार, 5 अप्रैल 2023

कफ़न : प्रदीप चौहान

मेरे दुश्मन तू मुझ में से कब निकलेगा,
रोम रोम बसा अब ज़हर कब निकलेगा।
खत्म होने की कगार पर है मेरी पहचान,
अब निकल वर्ना मेरा कफ़न निकलेगा।

दोस्त निकलते गये आगे मैं पीछे रह गया,
सबके हुए पूरे पर हर सपना मेरा ढह गया।
बहुत चले पर मंज़िल अब भी कोसो दूर है,
संभाला था डूबने से वो तिनका भी बह गया।

अपनो से मिलता ताना ना ज़हन से निकलेगा,
विफलता का अज़गर ना चन्दन से निकलेगा।
निकलेगा प्राण भी इस चलते फिरते शव से,
गर आलस्य का ज़हर ना बदन से निकलेगा।

शुक्रवार, 31 मार्च 2023

मेरे दुश्मन: प्रदीप चौहान

दोस्त निकलते गये आगे मैं पीछे रह गया,
सबके हुए पूरे पर हर सपना मेरा ढह गया।
बहुत चले पर मंज़िल अब भी कोसो दूर है,
संभाला था डूबने से वो तिनका भी बह गया।

प्रदीप चौहान

अब कफ़न निकलेगा: प्रदीप चौहान

मेरे दुश्मन तू मुझ में से कब निकलेगा,
रोम रोम बसा अब ज़हर कब निकलेगा।
खत्म होने की कगार पर है मेरी पहचान,
अब निकल वर्ना मेरा कफ़न निकलेगा।

प्रदीप चौहान

गुरुवार, 9 मार्च 2023

किताबों से : प्रदीप चौहान


जिंदगी के कुछ पन्ने जो रह गए बिन गढ़े,
सीखो लेखन का हर सलीक़ा, किताबों से।

दबी है कुछ कर गुजरने की आग गर सीने में,
जानों कथन का नया तरीका, किताबों से।

मोबाइल की अति बनी अभिशाप मनुष्य की,
बदल दो भटकाव का ये जंजाल, किताबों से।

सोशल मीडिया करता भस्म समय कीमती,
रोको भस्मासुर का परचम लहराना, किताबों से

ज्ञान है इक आधार जो बदल दे हर हालात,
करो अर्जित इल्म का खज़ाना, किताबों से।

जागो, पढ़ो, बढ़ो, करो हांसिल हर मंज़िल,
लिखो सफलता का अफसाना, किताबों से।

प्रदीप चौहान

सोमवार, 27 फ़रवरी 2023

कर्तव्य पथ पर खड़ा ये देश का स्वाभिमान।

 









दीवारों पर लिखे हजारों शहीदों के नाम,

युधस्मारक ये गड़तंत्र भारत की पहचान।

अमर जवान ज्योति देती हरपल श्रधांजलि,

कर्तव्य पथ पर खड़ा ये देश का स्वाभिमान।

हे मंजिल तु मुझे मिलती क्यों नहीं : प्रदीप चौहान

 

कितनी खुशियों को हमने छोड़े 

कितने अपनों से हमने मुंह मोड़े 

पल पल मारते रहे इच्छाओं को 

हर कदम तकते रहे आशाओं को

पल पल चाहा हरपल की कोशिश

हे मंजिल तु मुझे मिलती क्यों नहीं?


घर छोड़े हमने अपना गांव छोड़ा 

मां की ममता भरा हर छांव छोड़ा 

दोस्ती छोड़ी अपने हर दोस्त छोड़े

बन परदेसी हमने रिश्ते नाते तोड़े

पल पल चाहा हरपल की कोशिश

हे मंजिल तु मुझे मिलती क्यों नहीं?


गेहूं की सरसराती बालियां छोड़ी 

धान की मखमल पेठारियाँ छोड़ी

लहलहाते हुए हमने खेत छोड़ें 

छोड़ा दिया हमने बाग बगीचा।

पल पल चाहा हरपल की कोशिश

हे मंजिल तु मुझे मिलती क्यों नहीं?

लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा : प्रदीप चौहान


लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा : प्रदीप चौहान


जनतंत्र का जो पर्व  है बड़ा, 

चुनाव रूपी फ़रेब का है घड़ा।

बोटी बोटी का है ख़रीद फरोख,

मर अब गया तेरा अपना कोख़।

अंग अंग आइ सी यू में पड़ा,

लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा।


विधायिका बनी ग़ुलाम अमीरों की,

करती पैरवी राजनीतिक जागीरों की।

करोड़ों की छीनती ज़मीनें खुलेआम,

चंद घरानों को करती मालामाल।

अंग अंग आइ सी यू में पड़ा,

लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा।


कार्यपालिका में फैला घोर भ्रष्टाचार,

रिश्वत लेनदेन का फैला मैला व्यापार।

बिना रिश्वत बाप को बाप नहीं कहता,

हर कुर्सी पर बैठा ज़िंदा जोंक है रहता।

अंग अंग आइ सी यू में पड़ा,

लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा।


न्याय-पालिका बनी अन्याय सलीक़ा,

आमजन के शोषण दमन का तरीक़ा।

ग़रीब दबे-कुचलों को देती ये सज़ा,

अमीर संपन्नों को परोसती ये मज़ा।

अंग अंग आइ सी यू में पड़ा,

लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा।


चौथा स्तम्भ इस क़दर मरा,

चंद घरानों के तलवों में पड़ा।

भूल धर्म-ए-पत्रकारिता,

कर रहा ये चाटुकारिता।

शेष साँसों को इसने है मारा,

लोकतंत्र तेरा वज़ुद नहीं रहा।

गुरुवार, 10 नवंबर 2022

मेरे दोस्त हमारे रिश्ते को आयाम देते थे: प्रदीप चौहान


तुम्हारी गली जाने का हर काम लेते थे,
तेज लफ़्ज़ों में दर तेरे मेरा नाम लेते थे।
बात बात पर कराते थे तुम्हारा एहसास,
मेरे दोस्त हमारे रिश्ते को पहचान देते थे।

तुम्हारे घर को न ताके कोई पैग़ाम देते थे,
उस गली से न गुजरे कोई फ़रमान देते थे।
तुम्हें तकने वाले से झगड़ना थी आम बात,
मेरे दोस्त हमारे रिश्ते को पहचान देते थे।

तुम्हारे आने का हर दिन पयाम देते थे,
हमें मिलाने का हर नया मुकाम देते थे।
साम दाम दंड भेद अपनाते हर हथकंडे,
मेरे दोस्त हमारे रिश्ते को पहचान देते थे।

तुम भई पराई पर दोस्त हरपल अपने थे
वो दोस्त थे, दोस्ती थी, जिंदा हर सपने थे
तुम्हारे चले जाने पर न टूटने देते थे मुझे
मेरे दोस्त हमारे रिश्ते को पहचान देते थे।

बुधवार, 2 नवंबर 2022

आओ जीवन में फिर नई आशा भरें : प्रदीप चौहान


कुछ तुम कुछ हम, दूर निराशा करें,
चलो मिलकर खत्म हर तमाशा करें।
मेरी गलतियां तुम भूलो तुम्हारी मैं,
आओ जीवन में फिर नई आशा भरें।

दूर करें गलतफहमियां एक दूजे की, 
खत्म करें सब कमियां एक दूजे की।
चलो जिवन की हर राह आसां करें,
आओ जीवन में फिर नई आशा भरें।

चलो फिर एक दूजे का फ़िक्र करें,
हर बात पर एक दूजे का ज़िक्र करें।
पूर्वाग्रहों को हमेशा के लिए भुलाकर
आओ जीवन में फिर नई आशा भरें।

लड़कर हम तुम हर भड़ास निकालें,
रख कंधे पर सर हर आस निकालें।
कर मंथन चिंतन दूर हर निराशा करें
आओ जीवन में फिर नई आशा भरें।


शनिवार, 22 अक्टूबर 2022

Pradeep Chauhan

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