सोमवार, 10 सितंबर 2018

नही बेटे...अकेले बाहर नही जाते : प्रदीप चौहान

ये कविता छोटी छोटी बच्चियों के साथ हो रहे बलात्कार, यौन शोषण व अत्याचार की वजह से आहत एक माँ के द्वारा अपनी नन्ही बेटी को दी जाने वाली शिक्षा पर आधारित है। और एक पिता के चिंतन के द्वारा समाज का आईना प्रस्तुत करने की एक कोशिश है।
मन में उमंग, 

चेहरे पर हंसी
नज़रों में जिज्ञासा, 
कुछ जानने की आशा
लुभाती किसी चीज के लिए
जैसे ही बेटी ने कदम बाहर बढ़ाये
थमें पैर सुन माँ की तेज आवाज़
"नही बेटे...अकेले बाहर नही जाते"।



आया माथे पर सिकन, 
चेहरा मुरझाया
बेटी ने कदम पापा की ओर बढ़ाया
"क्यो पापा ?" 
बेटी ने ये प्रश्न सुनाया
आंखों में टकटकी, 
जवाब न समझ आया।
पत्नी पर क्रोध उमड़
विचलित मन 
कारण की ओर दौड़ाया
एक माँ के मन मे ये विचार क्यों आया
तो हलख से एक शब्द भी न निकल पाया।



ये सिख जीस आधुनिक माँ ने रटाया
शिक्षित, प्रशिक्षित, तकनीक की ज्ञानी
काम पर जाती, 
बच्चों को पढ़ाती
घर की सारी जिम्मेदारियां मजबूती से निभाती।
दिन की शुरुआत करती 
अखबार की मोटी लाइनें
छेड़खानी,बलात्कार सुसज्जित समाज के आइनें
सोशल मीडिया स्करोलिंग में ये ही पाती बार बार
मन को आघात करते, 
टीवी पर सनसनी खबरों की भरमार।



याद है कठुआ, सूरत, मणिपुर के हादसे
आठ की उम्र में बच्चियों से बलात्कार
निर्मम, अमानवीय कृत्य ने 
हर माँ का दिल दहलाया
ऐसे इतिहास ने 
खुद को कई बार है दोहराया।
सोचता हूँ ये शिक्षाएं 
बेटीयों पर क्या असर लाएंगी
बचपन से सुनी ये लाइनें 
मस्तिष्क में घर बनाएंगी
अनजान डर उसके हिम्मद को डिगायेंगी
ढूढेंगी किसी का साथ हर क़दम
पंखों को बेड़ियां लग जाएंगी।



जब जब नारी आगे आयी है
तब तब पुरुष समाज हावी है
तोड़ना होगा ये मनुवादी इतिहास
हर पिता, भाई, बेटे की 
ये जिम्मेदारी है
ताकि कोई माँ न कहे 
किसी बेटी से
" नही बेटे...अकेले बाहर नही जाते।

गुरुवार, 6 सितंबर 2018

क्यों सो रहा तू नौजवान। : प्रदीप चौहान

क्यों सो रहा तू नौजवान।

न हो करियर में असमंजस
कि दूर तक तुझे है जाना
न रख कोई बैर न रंजिश
कि तुझे खुद को नहीं उलझाना
तुझमे है जज्बा रच सफलता का इतिहास
क्यों सो रहा तू नौजवान।

अपनी क्षमताओं का स्मरण कर
अपनी कमियों का तू मरण कर
तू सिख नित नए हुनर
अपनी अच्छाइयों की बुनियाद पर
चल गगन पर तू परचम लहरा
क्यों सो रहा तू नौजवान।

है करियर में भटकाव बहोत
हर मोड़ पर टकराव बहोत
उलझनें मिलेंगी हर कदम
अड़िग बना तेरी इच्छाशक्ति और दम
तू जीत सकता है सबको पछाड़
क्यों सो रहा तू नौजवान।

सुलगाई जा रही धर्म की चिंगारी दिलों में
लगाई जा रही हिन्दुत्व की आग सीनों में
कुछ अपने निजी स्वार्थ के लिए 
बिछा रहे बिसात विध्वंस की
इस भस्मासुर को न होने दे विकराल
क्यों सो रहा तू नौजवान।

मुद्दे से तुझको भटकाया जा रहा
बुनियादी जरूरतों के लिए तरसाया जा रहा
चुनाव में तुझको भुनाया जा रहा
छोटी छोटी मांगों के लिए नचाया जा रहा
न मरने दे तेरा ज़मीर, तू बन खुद्दार
क्यों सो रहा तू नौजवान।

शोषण अपने चरम पर है
दमन का हर जगह परचम है
लूट खसोट बना सबसे बड़ा व्यापार है
बेसब्री बन रहा युवाओं का जंजाल है
न बनने दे भ्रष्टाचार लोगो की पहचान
क्यों सो रहा तू नौजवान।

मंगलवार, 28 अगस्त 2018

नटखट सी: प्रदीप चौहान

ये कविता पिता और नन्ही बेटी के बीच पवित्र प्यार, दुलार, खुशी, नाराजगी, शरारत भरी दिनचर्या को दर्शाता है।
और साथ ही साथ पति पत्नी के आपसी झगड़ो की वजह से बच्चों के परवरिश में होन वाले दुष्प्रभाव की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है।
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
चेहरे पर हरपल हंसी
सरारतों की खान, 
नाटक में महान
चिड़ियों सी मधुर चहचहाहट
खुशियां बिखेरना उसकी पहचान 
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
नटखट सी, फ़टफ़ट सी


परियों से भी प्यारी है
पापा की नन्ही दुलारी है।
भालू शेर की नकल करवाती
घोड़ा बनने की जिद्द पे अड़ जाती
उंगली पकड़ दूर तक चलाती।
थक कर पापा की गोद में पड़ जाती
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
नटखट सी, फ़टफ़ट सी

दरवाजे पे इन्तेजार वो करती
देर होने पे तकरार वो करती।
आहट सुन दौड़ कर आती
कूद के सीने से लग जाती।
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
नटखट सी, फ़टफ़ट सी


सवालों का अम्बार लगाती
दिन भर की हर बात सुनाती।
दौड़ दौड़ के गाना गाती
पापा आये-पापा आये,
नाच नाच सबको बतलाती।
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
नटखट सी, फ़टफ़ट सी


कंधे पर चढ़ जाती है
झूम झूम कर गाती है
एक सांस में ही सारे हुनर की,
झाकियां दिखाए जाती है।
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
नटखट सी, फ़टफ़ट सी

कविता-कहानियों की खीचड़ी का
अम्बार लगाए जाती है।
और सुनाऊ और सुनाऊ
पूछ पूछ इतराती है।
सबको ये हंसाती है,
खुशियां ये फैलाती है।
नटखट सी, फ़टफ़ट सी
नटखट सी, फ़टफ़ट सी

शुक्रवार, 15 जून 2018

मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं: प्रदीप चौहान

आज हमारे देश में बेरोज़गारी एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है। नौजवानों की बहुत बड़ी तादाद बेरोज़गार होती जा रही है। नौजवानों के हालात को ईस कविता के ज़रिये बयां करने की कोशिश की गयी है।
Pradeep Chauhan



मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

इनमें मोहम्मद रफ़ी
इनमें छिपा गुलज़ार है
हज़ारों प्रतिभायें इनमें पर बेकार हैं
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

हर क्षेत्र मे ख़त्म हो रही नोकरियाँ
भविष्य में  इनके अंधकार है
राज्य द्वारा पड़ी सबसे बड़ी ये मार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

ख़ालीपन ख़ुशियों को खा रहा
जवाँ पीढ़ी अवसाद में जा रहा
नशे की लत वालों मे हो रहे ये शुमार हैं
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

फ़ेसबुक रचनात्मक कामों से रोकता
वॉटसअप जीवंत समय को सोखता
चढ़ाया जा रहा शोशल मिडीया का बुखार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

जलाई जा रही धर्म की चिंगारी दिलो में
लगाई जा रही हिनदुतव की आग सिनों में
ईस भषमासुर से ईनका नहीं कोई सरोकार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

चुनाव में इनको भुनाया जा रहा
चंद पैसों के लिये नचाया जा रहा
लाचारी ईनकी वोट बैंक बाज़ार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

राज्य परिस्थिति को नहीं अांक रहा
कि जवाँ मस्तिष्क धुल आज फाँक रहा
भावी आंखों में इनके ग़ुस्से का अंगार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

बेरोज़गारी बढ़ते देना कुटनिति है
औरों के फ़ायदे की ये राजनीति है
विकराल हो रहा शोषण दमन का आकार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

पर वक़्त आ रहा कि ये जाग जायेंगे 
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचान पायेंगे
चल पड़ेंगे सब क्रान्ति की राह पर
और सत्ता अपने हॉथ में लायेंगे।

युवा समझ रहा कया उपचार है
कि सत्ता पर क़ब्ज़े की दरकार है
क्रान्ति ही ईसका बस उपचार है
मेरे देश के नौजवां बेरोज़गार हैं।

प्रदीप चौहान

पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा: प्रदीप चौहान

 पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा 

Pani ki samasya
Water Problem in Delhi
                                       
जगमगाती दिल्ली का ये रूप कैसा,
पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा! 
सबको बुनियादी हक भी जहां मिलते नहीं, 
झुग्गियां हैं वोटबैंक, पॉलिटिक्स और पैसा !! 

जागें हर सुबह मन पर बोझ लादे 
पानी है आज पाना बस यही जोर जागे!
मस्तिष्क रहे सचेत, आखें हरदम टेंकर को ताकें
 रखें कान खड़ा हर आवाज टेंकर की आहट सा लागे !!

लिये टंकी बाल्टियां चल पड़ें सब रोड पर 
लटकाये कंधों पर पाइपे, रहें घंटो खडे़ पानी की खोज पर 
कभी ताकें अपने बर्तन तो, कभी उमडी़ भीड़ भाड़ को,
सुन हौरन सब दौड़ं चले चढ़ने पानी की ताड़ पर !!

मचे भगदड़ ऐसे, भीड़ भागे आंधी के जैसे 
बच्चें औरत व जवान ले दौड़े सब अपना सामान !
बर्तनों का नगाड़ा बाजे, शोर हूँकारे बेशुरी तान, 
पाइपों से खिंचतान जैसे अमल हो लुट का फरमान !!

पाइपों में आया पानी जब भगने लगे 
अधभरे बर्तन देख अफसोस की लकीरें जगें।
मुश्किल से ढुँढे़ सब अपने खोये हुए बर्तन,
 बिल्कुल ना पाने वालों के आंसू छुटने लगे!!

चुनाव का मुददा यही होता है बार-बार 
भरपूर शु़द्ध गंगाजल, घर-घर मिलेगा अबकी बार 
उम्मीदवार बदलें, पार्टी बदली, बदली पुरी सरकार 
ना झुग्गियों के हालात बदलें, ना पानी की ये हाहाकार !!

पानी की ये किल्लत नासुर बन बैठा 
सुखे में सारा बचपन, जवानी भी सुखार जैसा 
कचोटे है यहां बसने की मजबुरी हरपल 
जीवन लगे है यहां अब नर्क के जैसा !!

अब तो ये सौगन्ध आओ खायें
 भावी पीढी को सब मिलकर बचायें !
 शोषण व भ्रष्टाचार मुक्त सामाज के लियें
चलें  क्रांति की राह पर और सता अपने हाँथ में लायें !!

जगमगाती दिल्ली का ये रूप कैसा
पानी पाना है यहां जंग जितने जैसा !
सबको यहां बुनियादी हक भी जहां मिलते नहीं 
झुग्गियां बनी वोटबैंक, पॉलिटिक्स व पैसा !!
                                      
   प्रदीप चैहान          

बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले: प्रदीप चौहान

रोज़गार व बेहतर ज़िंदगी की तलाश मे न चाहकर भी अपना घर परिवार छोड़कर शहरों मे आने का सिलसिला वर्षों से चलता आ रहा है। पलायन करने वाले हर व्यक्ति की दर्दनाक व्यथा को इस कविता के ज़रिये बयां करने की कोशिश की गयी है।

" बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।"

बेहतर ज़िंदगी की तलाश में
उज्जवल भविष्य की आस में,
कई सपनों से मुँह मोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

मॉ की ममता भरा दुलार है छुटा,
पिता का डांट फटकार है छुटा,
बहन की नादान तकरार से नाता तोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

बिटिया की पढ़ाई के ख़ातिर
बहन की सगाई के ख़ातिर,
पत्नि के “सपनों का घर” के ईंट चुनने चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

यारों की यारी छुटी
अमिया की फुलवारी छुटी,
दोस्तों संग जमाया ठहाकों का अड्डा हम छोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

बथुआ सरसों का साग छुटा,
मकई का अब न बाल टुटा,
मिटठे की कराही मे पकता कोन हम छोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

नौकरी की राह ऐसी,रुपयों की चाह ऐसी
आत्म पहचान बनाने के जहदोजहद मे,
सारे रिश्ते नाते तोड़ चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

ज़िंदगी का दस्तूर है ये कैसा,
कुछ पाना लगे सबकुछ खोने जैसा,
मन में यादों का लिये नासुर चले,
बने शहरी हम अपनों को छोड़ चले।

(प्रदीप चौहान)

Kavi Pradeep Chauhan