मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

इंसानियत का संहार : प्रदीप चौहान


इंसानियत का संहार

कुछ हिन्दू बन रहे 
कुछ मुसलमान बन रहे
भूलकर इंसानियत
ये शैतान बन रहे।

कुछ के निजी स्वार्थ हैं
कुछ का अपना इरादा है
मिटाकर आपसी भाईचारा
धार्मिक उदंड पे आमादा हैं।

कुछ के वोट हिन्दू हैं
कुछ के मुसलमानों का व्यापार हैं
वोट बाँट कि भ्रष्ट राजनिती में
कर रहे इंसानियत का संहार हैं।

अगर नहीं रोका इन्हें
तो उत्पात ये मचाएँगे
इंसानियत की चितावों पर
ये रोटियाँ पकाएँगे।

किया आँखो को बंद जिन्होंने
समस्या विकराल और बनाएँगे
मचेगा हैवानियत का तांडव अगर
अछूते वो भी नहीं रह पाएँगे।

आँखों में बसा जिनके क़ौम है
देखकर ये चिंगारी जो आज मौन हैं
वक़्त के गुनहगार वो कहलाएँगे
इंसानियत की मौत पर आँशु बहाएंगे।

बुधवार, 21 अगस्त 2019

मेरी बिटिया : प्रदीप चौहान

याद है वो कठिन समय जब
पापा या मम्मी का विकल्प था आया
पापा संग कोई नहीं रहेगा
सुन बिटिया ने मम्मी से हाथ छुड़ाया
लिपट के बोली पापा मैं आपके साथ रहूंगा
नन्ही की समझदारी देख आंख था भर आया।

उस रात बेटी नही सो पायी थी
चिंतित चेहरा, नम आंखें,
लबों पे न मुस्कान लाई थी
लिपट-लिपट कर चेहरा देखती
नींद न आने की व्यथा सुनाई थी।

"क्या मम्मी कभी नही आएगी?"
थर्राते लबों पे जब ये प्रश्न वो लाई थी
दिल पसीज गया आंखें भर आयी
लगाया गले प्यार से समझाया
बहला फुसला उसको था सुलाया।

उस दिन था बात ये समझ आया
बच्चों के बेहतर परवरिश के लिए
माता -पिता का साथ सबसे जरूरी
बेटी ने ये एहसास दिलाया।

हर माँ-पिता को कसम ये खाना होगा
छोटे छोटे झगड़ो को मिलकर सुलझाना होगा
बच्चों के भविष्य पर न पड़े कोई गलत प्रभाव
बेहतर खुशहाल परवरिश का माहौल बनाना होगा।


रविवार, 18 अगस्त 2019

वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे : गुलशन ठाकुर


जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे

इस सावन की हरियाली में
हम सब मस्ती में झूम रहे हैं
हमें नहीं भूलना उन लम्हों को
जिस कारण आज जीवन में 
हम खुशियों का दामन चूम रहे हैं
जहाँ ओस की बूँदें लगे थी मोती
वहाँ भँवरों के गुलशन अब कहाँ खिलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे

वो मधुर सुगंधित मीठा बचपन 
जब खेलते थे गुड्डे गुड़ियों संग
वो छुट्टी में नानी घर जाना
आमों की बगिया में उधम मचाना
जहाँ होती सब गलती माफ
वो स्नेह के आँचल अब कहाँ मिलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल 
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे

वो कंधे पे बस्ता टाँगे जाना
फिर एक दूजे को खूब चिढ़ाना
वो प्रेम की रोटी और अंचार
था जिनके बिन जीवन बेकार
फिर जून की तपती धूप में
हम कोयल की कूँ कूँ कहाँ सुनेंगे
जो बीत गए जीवन के पल 
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे

थी चौङी छाती सिंह की चाल
जब चार यार मिल करे धमाल
तब अल्हड़ मस्त जवानी थी
जीवन के हर दौर में 
बस अपनी ही मनमानी थी
वो मौसम प्रेम कहानी के 
अब हमें ओ यारा कहाँ दिखेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे

कोई लौटा दो मेरे वो दिन
वो मस्ती बचपन की वो प्रेम के दिन
जो हो गई पूरी अपनी आस
हम तितली सा फिर उड़ चलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
Gulshan Thakur

तब क्या करोगें ? : दिनेश


देश कि वर्तमान परिस्थिती पर एक सवाल

तब क्या करोगें ?

बंद फैक्टरीयां, बिक रहे कारखाने कई हजार, 
जब नौजवां दर-दर भटके बेरोजगार, तब क्या करोगें ?
जल, जंगल, जमीन लूट गयी गरीब की, एक तरफ सत्ता और दौलत बेसूमार, तब क्या करोगें ?
हैं आधुनिक हथियार और हो मंगल का सरताज,
फिर भी जनता मरती सूखा और बाढ़, तब क्या करोगें ?
धर्म और मजहब मे उल्झा रहा आवाम,
सियासत का हैं ये बहुत पूराना व्यापार, तब क्या करोगें ?
लग जाती हैं बेडी़यां, सिल दी जाती हैं ज़बान,
जब बिगडते हालात पर पूंछे कोइ सवाल, तब क्या करोगें ?
*-दिनेश*






रविवार, 11 अगस्त 2019

एक प्रेम कहानी लिखें फिर कश्मीर में : गुलशन ठाकुर


इन वादियों की सुर्ख हवा में
देखो बस्ता कोई नूर है
जिसे धरती का हम स्वर्ग है कहते
क्यों सबकी पहुँच से ये दूर है
सोचना क्या है होगा ही वो
जो लिखा है तकदीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कशमीर में 

क्यों अमन यहाँ सब लूट रहे हैं
खुद में लड़कर ही क्यों भला
हम टुकड़ों में यूँ टूट रहे हैं
कहाँ गए वो मौसम रूमानी
जहां बहता था झीलों में पानी
हर राँझा खोया रहता था
जहाँ अपनी प्यारी सी हीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में

लो हुई खत्म धारा 370
फीर एक नया कश्मीर बनाएं
जहाँ होते थे हमले आतंकी
वहाँ प्रगति का हम दीप जलायें
अब नही चलेगा पत्थर कोई
झूठे जिहाद की भीड़ में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में

सालों से Aदेखा जो सपना
आज हुआ है पूरा अपना
है आज दिवाली और ईद भी
किस्मत से आया ये शुभ दिन है
ऐसे ही नहीं कहती दुनिया
मोदी है तो मुमकिन है
है मिला कुशल प्रशासक हमको
इस मोदी से फकीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

मैं एक लड़की हूँ : गुलशन ठाकुर

ये कविता मेरे एक फेसबुक मित्र श्री गुलशन ठाकुर के द्धारा लिखी गई है और उनके फेसबुक पेज से ली गई है।  ये कविता मेरे दिल के बहुत करीब है, इसे बार बार पढ़ने के साथ-साथ आप लोगों के साथ सांझां करने योग्य है।एक बार आप भी पढ़ें।

मैं एक लड़की हूँ

एक दर्द सा है मेरी आँखों में

जिसे ढकने की मैं कोशिश करती हूँ

क्या है कसूर इस दुनिया में मेरा
क्यों जीने को मैं पल पल मरती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की 
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ

मुझे नहीं चाहिए धन दौलत
न हूँ मैं पत्थर की मूरत
बस लोग खिलौना समझे मुझको
फिर देवी रूप में पूजते किसको
जो मुझको सब हैं बेटी मानें
फिर क्यों अपनों से मैं पल पल डरती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की 
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ

जिसने है तुमको बनाया
है उसने ही कन्या बनायी
फिर करते हो क्यों भेद जरा 
ये तो सबको बतला दो भाई
जब मुझमें ही तुम देखो लक्ष्मी
फिर क्यों दहेज़ के ताने मैं
दुनिया से पल पल सहती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की 
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ

बस मुझे चाहिए प्यार तुम्हारा
चाहे मिले न कोई और सहारा
मानो तुम सबको एक समान
प्यार तुम्हारा पाकर देखो
कैसे बनती है बेटी महान
न बहे किसी कन्या के आंसू
बस यही प्रार्थना मैं करती हूँ
है हूँ लड़की मैं हूँ लड़की 
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ

बेटियों पर गर्व करें शर्म नहीं
(श्री गुलशन ठाकुर)

मंगलवार, 21 मई 2019

तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है : रमेश आनन्दानी

श्री रमेश आनन्दानी सर द्वारा, “ राष्ट्रीय युवा दिवस ”  के अवसर पर रचित एक कविता । जो फ़ेस्बुक पोस्ट से प्राप्त हुई। और युवाओं को प्रेरणा देती, उनमें जोश भरती एक बेहतरीन कविता है।

तुम युवा हो, तुम में जोश है
स्वयं को पहचानो तुम में होश है
आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ो
आकाश तुमने छूना है
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है

अंतर न करो युवक युवती में
दोनों का लक्ष्य एक ही है जीवन में
साथ मिलकर चलेंगे तो आसान होगा
पत्थरों पर चलना दूब समान होगा
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |

पृथ्वी चल रही है चाँद भी चल रहा है
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति चल रहा है
तुम्हें तो जुनून है मंज़िल को पाने का
फिर साथ रौशनी का हो या अन्धेरे का
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |

सफलता की राह में रोड़े बड़े मिलेंगे
धर्म और राजनीति के धोखे बड़े मिलेंगे
अपने सपनों व इरादों को विशाल करो
देश की सेवा के विश्वास को मशाल करो
तुम्हें आगे ही आगे बढ़ना है |

श्री रमेश आनन्दानी 

रविवार, 24 मार्च 2019

भूख: रोशन सिंह


भूख नहीं थी
कई दिनों से भूख नहीं थी,
क्योंकि घर में चून नहीं था,
काम कई जून नहीं था,
भीड़ थी, शोर था और लेबर चौक था
उस रोज़ जब काम मिला तो,
कुछ समय के लिये ही सही,
भूख से गिला मिटा

....रोशन सिंह....

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

ज़मीर वालों तुम्हें सलाम : प्रदीप चौहान








युवाओं को राह दिखाया
हक़ के लिए लड़ना सिखाया
जब जब क़दम इनके लड़खड़ाए
ऊँगली पकड़ संभलना सिखाए
मार्गदर्शन से दिलाए कई मुक़ाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।

महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलाया
किशोरियों को आगे बढ़ना सिखाया
पुरुष प्रधान बीमारी का किया काम तमाम
कुंठित मर्यादाओं का ख़त्म नामों निशान
समानता के रण में किये हांसिल कई मुक़ाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।

हक़ और सम्मान की लड़ी लड़ाई
बुनियादी ज़रूरतों की माँग उठाई
व्यवस्था परिवर्तन का लिए अरमान
राजनीतिक गलियरों को दिए कई फ़रमान
सैकड़ों आंदोलनों को दिया तुमने मुक़ाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।

बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ अनसन किए
न्यूनतम वेतन के लिए प्रदर्शन किए
किसानों के हक़ की लड़ी लड़ाई
सैनिकों के पेन्शन की आवाज़ उठाई
निंदित सरकारों का किया जीना हराम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।

तुमने कभी झुकना नहीं सिखा
तुमने कभी टूटना नहीं सिखा
शोषण के ख़िलाफ़ की बुलंद आवाज़
दमन का डगमगाया साम्राज
हक़ की लड़ाई के तुम कलाम
ज़मीर वालों तुम्हें सलाम।



मंगलवार, 19 फ़रवरी 2019

जिस राह पर हम कभी मिला करते थे : रमेश आनन्दानी

स्वरचित ग़ज़ल

जिस राह पर हम कभी मिला करते थे
वहां के मंज़र अब भी वैसे ही खड़े हैं
तुम तो मुस्कुरा कर आगे मुड़ गए थे
हम अब भी वक्त को थामे वहीँ खड़े हैं |

सोचते हैं कभी शायद कोई बहार आएगी
जो तेरी साँसों से मंज़र को महकाएगी
कभी तो कोई हवा इस मोड़ की तरफ आएगी
जो तेरे शहर की खुशनुमा खबर लाएगी |

कभी तो यहाँ के गुलशन महका करते थे
अब तो वे भी तुम्हारी नज़रों का इंतज़ार करते हैं
हमारी खातिर तो तुमने कभी इधर का रुख किया नहीं
इन गुलों पर ही करम करो जो तबसे राह तकते हैं .

झूमकर जिन कदमों के साथ कभी हम चले थे
यह राहें अब भी उन कदमों को याद करती हैं
कभी फिर लौटकर आओगे इन फ़िज़ाओं में
इस उम्मीद से हर लम्हा, हर शय याद करती है |

याद करो उन रिमझिम बरसातों को
जिन में अक्सर हम भीगा करते थे
वो बरसातें हर बार सावन में
झूम - झूमकर तुम्हें याद करती हैं

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

कब तक शहादतें होती रहेंगी : प्रदीप चौहान

जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर हुए मिर्मम आतंकी हमले में जवानों के शहीद होने की बेहद ही दुःखद ख़बर से आहत और जवानों की सुरक्षा में असफलता के कारण उपजे कुछ प्रश्नों को इस कविता के ज़रिए उठाने की कोशिश की गई है।
वीर जवानों की शहादत को कोटि-कोटि नमन।

भिगोकर ख़ून में वर्दीयां
माताओं के लाल सोते रहेंगे
लिए मुल्क की मोहब्बत सच्ची
कई बेटे खोते रहेंगे
क्या सिलसिले-ए-शहादत
कड़ियाँ यूँ ही संजोते रहेंगी
बताओ ये मुल्क के आकाओं
कब तक शहादतें होती रहेंगी?

माँ जिन्हें लोरियाँ सुनाती हैं
कलाई जिनकी बहनें सजाती हैं
पिता जिन्हें चलना सिखाते हैं
भाई जिनको हँसते हँसाते हैं
क्या पंचतत्व में हो विलीन
आँखें अपनों की यूँ ही रोती रहेंगी
बताओ ये मुल्क के आकाओं
कब तक शहादतें होती रहेंगी?

पत्निया जिनके लिए श्रिंगार करती हैं
बिन्दी सिंदूर से माँग सजती हैं
तीज करवाचौथ उपवास रखती हैं
देख टुकड़े शरीर बेआवाक घुटती हैं
क्या तोड़ मंगलसूत्र सुहाग चूड़ियाँ
बन विधवा यूँ ही विलापती रहेंगी
बताओ ये मुल्क के आकाओं
कब तक शहादतें होती रहेंगी?

नन्हे नौनिहालों की लंगोटिया जाती रहेंगी
छोटी छोटी बेटियों की चोटियाँ जाती रहेंगी
विस्फोटों से जिस्म की बोटियाँ जाती रहेंगी
दर्जनो घरवालों की रोटियाँ जाती रहेंगी
क्या यूँ ही इस हैवान सियासत में
अपनों की अनमोल क़ुर्बानियां जाती रहेंगी
बताओ ये मुल्क के आकाओं
कब तक शहादतें होती रहेंगी?




गुरुवार, 6 दिसंबर 2018

हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों : प्रदीप चौहान


छोटे छोटे कमरों में
जी रहे बन तुम लाचार
न स्नान का कोई प्रबंध
न शौच का कोई आधार
बुनियादी जरूरतों के मार झेलते जलिलों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।

छोटी बहनें जाएं शौच खुले
सहती मनचलों के आघात
सत्ताधारी नही दे रहे सीवर की सौगात
कर पाएं सम्मान की उनके रक्षा
क्या इतनी भी नहीं औकात
हे राखी का कर्ज़ भूले फकीरों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।

नहीं करते पार्क की व्यवस्था
न  बनाते खेल का मैदान
नुक्कड़ गलियों पे हो इकट्ठा
खेल रहे किशोर अब सट्टा
क्यों चुप बैठे तुम बधिरों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।

न करते नौकरी की व्यवस्था
न करते रोजी रोटी का उपचार
न लाते न्यूनतम मजदूरी
कर रहे शोषण का प्रहार
क्यों बैठे तमाशबीन हे कुपोषित अमीरों
हक़ के लिए लड़ो स्लम के विरों।

खालीपन खुशियों को खा रहा
जवां पीढ़ी अवसाद में जा रहा
बेरोजगारी की ऐसी पड़ रही मार
नौजवां हो रहे नशे में शुमार
क्यों सह रहे सब साक्षर धिरों
हक़ के लिये लड़ो स्लम के विरों।
(प्रदीप चौहान)

Kavi Pradeep Chauhan