मंगलवार, 24 अगस्त 2021

गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं: प्रदीप चौहान


बच्चे नौजवां अब खेलते सट्टा
कहीं छलकाते ज़ाम कहीं सुट्टा
नई नस्ल हुई बेपरवाह सब चुप हैं,
भावी पीढ़ी हुई तबाह सब चुप हैं।
अंधे अभिभावकों की ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

अत्याचार झेलते कर आंखें बंद
हर एक मार झेलते बन अपंग।
काम के घंटे बढ रहे सब चुप हैं,
तनख्वाहें घट रहीं सब चुप हैं।
मृत करदातावों की ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

निजीकरण की पड़ रही मार,
देश की संपत्ति बेच रही सरकार।
ऐरपोर्टस बैंक बेचे सब चुप हैं,
रेलवे हाइवे बेचा सब चुप हैं।
बेजुबां नस्ल बुझदिल ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

ना थिरकते किसी की बारात पर 
ना  सिसकते  किसी वारदात पर।
देख अन्याय ये करते आंखें बंद
ज़मीर की आवाज़ पड़ रही मंद।
शरीफ मुखौटों में स्वार्थी ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

तुम आई : प्रदीप चौहान

तुम आई!

एक आत्म द्वंद्व था मेरे अंदर
सीने में ख्वाबों का समंदर
एक पीड़ा अन-कही सी
एक वीणा अन-सुनी सी
खुद ही में उलझा सा
स्वयं अनसुलझा सा
फिर... 
तुम आई!

जी रहा था मै
आत्मा में कई टिस लिए
बेजुबां कई चीख लिए
बेपनाह खींस लिए
मुखौटा भीख लिए
था आत्मग्लानि में डूबा इंसान
शून्य हुआ था स्वाभिमान
फिर... 
तुम आई!

तुम आई 
बन जीवन संगिनी 
मिन्नत में मुझे चुना
शिद्दत से मुझे सुना
समझा मेरे वजुद को
अंदर के मकसूद को 
मुझमें से मुझे निकाला
द्वन्दित आत्मा खंगाला
पग पग साथ निभाया
हर पल हिम्मत बढ़ाया
बन मेरी जीवन "कविता"
मुझमे "प्रदीप्त" जगाया!

तुम्हारा आना ही,
मेरा आना था!
मेरा वर्तमान था! 
मुझमे, मैं था!

Dedicated to my wife on our anniversary

रविवार, 18 जुलाई 2021

स्लम एक सज़ा : प्रदीप चौहान

माँ-बहनें टंकियों से जब भीख मांगती हैं
भाई-बेटों के मरे ज़मीर की सजा काटती है।

गिड़गिड़ाहट के शब्द जब लबों पे सजती है
राखी व दूध के कर्ज़ चुकाई को तरसती है।

घूंघट में पत्नियां जब खुले में शौच चलती हैं
अपनों के मरे सम्मान का अपमान सहती हैं।

बैठ बच्चे गली मौहल्लों में जब पार्क को तकते हैं
भाइयों के बेरुखी से शारीरिक मजबूती को तरसते हैं।

अवैध शराब से जब जवां नशे में लिप्त झूमते हैं
अभिभावकों की नाकामी से कलह उपजते हैं।

किशोर जब चोरी,झपटमारी, शॉर्टकट चुनते हैं
माँ पिता के असफल परवरिश की पोल खोलते हैं।

चंद बिगड़ैल जब खुले में कोई जुर्म रचते हैं
तमाशबीन गुनहगारों की नामर्दगी से बढ़ते हैं।

मंगलवार, 29 जून 2021

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा : प्रदीप चौहान









वक़्त तु ज़ुल्म इतना ना कर

यूँ बेरहमी की इंतहां ना कर

माना लाचार हैं हम तेरी मार से 

पर नहीं रुकेंगे क्षणिक हार से 

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।


माना तैयारियाँ कम पड़ गई

अपनी ही साँसे मंद पड़ गई

आँखों में आँसुओं की धार है

शमशनों में विकराल क़तार है

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।


अभी तो हमने कुछ किया ही नहीं

जीवन का हर रंग जिया ही नहीं

अपनों से किए वादे अभी अधूरे हैं

कई सपने हुए ही नहीं अभी पुरे हैं

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।


इतनी जल्दी नहीं हारेंगे हम

हर अपने को सम्भालेंगे हम

तेरे हमलों से लड़ेंगे फिर इकबार

ख़ुद को खड़ा करेंगे फिर इक़बार

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।

शनिवार, 13 मार्च 2021

तेरे माथे पर वो छोटी सी बिंदी : अमित सिंह

 


तेरे माथे पर वो छोटी सी बिंदी मुझे अच्छी लगती है 

तू हस्ती रहा कर हस्ती मुस्कुराती मुझे अच्छी लगती है 


तेरी हर एक अदा अदा कि सादगी मुझे अच्छी लगती है

तेरे होठों की हंसी आंखों की शरारत मुझे अच्छी लगती है 


नजरे मिलाती नजरे चुराती नजरों की आवारगी मुझे अच्छी लगती है

तेरी नजरो की मेरी नजरो से वो हर मुलाकात मुझे अच्छी लगती है 


जीन्स से ज्यादा तु सूट सलवार में मुझे अच्छी लगती है

तेरे हाथों मे कंगन की खनखनाहट मुझे अच्छी लगती है 


तेरे कानों की बालियां नाक की नथनी मुझे अच्छी लगती है

तू मुझे एक बात पर नहीं हर बात पर अच्छी लगती है 


सावन कि बरसात मे तु भीगती मुझे अच्छी लगती हे

सर्दी कि धुप में बालों को संवारती तु मुझे अच्छी लगती है 


इठलाती बलखाती इतराती तु मुझे अच्छी लगती है

तेरे होठों की हंसी चहरे पर रोनक मुझे अच्छी लगती है 


तेरे माथे पर वो छोटी सी बिंदी मुझे अच्छी लगती है 

तू हस्ती रहा कर हस्ती मुस्कुराती मुझे अच्छी लगती है,

गुरुवार, 11 मार्च 2021

जीवित रहना जंग है : प्रदीप चौहान

Kavi Pradeep Chauhan


अर्थव्यवस्था मंद है

महँगाई भई प्रचंड है

ग़रीब झेलता दंड है

जीवित रहना जंग है।


जेब सबके तंग हैं

कमाई हुई बंद है

ज़िंदगी कटी पतंग है

जीवित रहना जंग है।


कुछ घराने दबंग हैं

हर सत्ता उनके संग है

बेशुमार दौलती रंग है

जीवित रहना जंग है।


शासन सत्ता ठग है

बेइमानी बसा रग है

लूट-खसोट का जग है

जीवित रहना जंग है।


भावी पीढ़ी मलँग हैं

सुलगते नफ़रती उमंग हैं

बढ़ते धार्मिक उदंड हैं

जीवित रहना जंग है।


बेरोज़गारी भुज़ंग है

बेकारी करे अपंग है

हर जवाँ हुनर बेरंग है

जीवित रहना जंग है।


मज़दूर किसान तंग है

आन्दोलन पर बैठे संग है

कारपोरेट गोद में संघ है

जीवित रहना जंग है।


बुधवार, 10 मार्च 2021

भार : प्रदीप चौहान

 हद से ज्यादा भार लेकर दौड़ा नहीं जाता 

साथ सारा संसार लेकर दौड़ा नहीं जाता ।

दौड़ो अकेले अगर पानी है रफ़्तार

जिम्मेदारियों का पहाड़ लेकर दौड़ा नहीं जाता।



बदलाव : प्रदीप चौहान

 अकेले चल  इंसान बदल जाते हैं

ले साथ चलें  तो बदलाव लाते हैं।

उस  सफलता  के  मायने  ही  क्या

जिसे पाते ही अपने पीछे छूट जाते हैं।



मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

कवि प्रदीप चौहान

 

Kavi Pradeep Chauhan

Kavi Pradeep Chauhan

बचपन की वो यादें हसीन थीं : स्वीटी कुमारी


बचपन की वो यादें हसीन थीं 

दोस्तों के साथ वो बातें हसीन थीं।

उनकी खुशी में खुश रहते थे हम

उनकी दुःख में दुःखी रहते थे हम

तो फिर ये मोड़ कैसा था

जिसमे होना पडा जुदा हमे 

पता तो था की मिलेंगे दोस्त हर मोड़ पर

लेकिन स्कुल की तो बातें 

कुछ और थी

की वो दोस्त पुराने थे 

निराले थे

दील लगाने वाले थे 

बात चीत कर के हर मुश्किल को सुलझाने वाले थे

इस लिए तो वह दोस्त हमारे थे।

बचपन की वो यादें हसीन थीं 

दोस्तों के साथ वो बातें हसीन थीं।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2021

एक ख्वाब : कैलाश मंडल

एक ख्वाब देखा, 

जिसे पूरा करना है|

एक सपना है 

जिसे अधूरा नहीं छोड़ना है |

रुकावटें तो क‌ई आऐ‌ंंगी और जाएंगी

पर झुकना नहीं है|

एक सपना है 

जिसे पूरा करना है|


एक ख्वाब देखा 

जिसे पूरा करना है|

कहने वाले खुब कहेंगे, 

पर सूनना नहीं है|

चाहे जितनी भी बार गिरे ,

खड़े होकर लक्ष्य को पाना है

साथ में खड़े हैं अपने, 

जितनी भी बार गिरे हैं|

मेहनत कर 

उस ख्वाब को पूरा करना है|

एक ख्वाब देखा 

जिसे पूरा करना है |

बुधवार, 6 जनवरी 2021

चेतावनी : रोशन सिंह



*चेतावनी*

बादलों बरस लो, चाहे तुम जितना!

शीतलहर तुम बरसाओ कहर, चाहे जितना!

चाहे, कर लो तुम भी सत्ता के साथ मिलीभगत!

नहीं, डिगा पाओगे हमारे हौसले!

हम तो वो फौलाद हैं,
जो बंजर और पथरीली ज़मीन का सीना चीर देते हैं,

जो तुम्हारी बरसात और शीतलहर कभी नहीं कर पाते,

उस बंजर ज़मीन से भी अपनी मेहनत का हक़ छीन लेते हैं!

इसलिये तुम्हें चेतावनी है!

मान जाओ!

लौट जाओ!

हम तो डटे हैं अनंत काल से,

और डटे रहेंगे अनंत काल तक,

यह हमारा वादा है तुमसे!

तुमने तो हमें परखा है!

खेतों में सालों-साल,

खलिहानों में, सालों-साल,

हमने ही चुनौती दी है तुम्हें, सालों-साल,

हमने ही तुम्हें हराया है, सालों-साल,

जानते हो क्यों?

अरे! तम्हें क्या बताना?

फिर भी, हम किसान हैं!

हम धरती की सबसे जीवट जात हैं!

रोशन सिंह

Kavi Pradeep Chauhan

 





रविवार, 3 जनवरी 2021

ठंड, बारिश और अख़बार वाला: प्रदीप चौहान


ठंडी हवाएँ जब चेहरे से टकराती हैं

बिन बताए आँसू खिंच ले जाती हैं

कान पे पड़े तो कान सून्न

उँगलियों पे पड़े तो उँगलियाँ सून्न

दुखिया जूते का सुराख़ डूँढ लेती

 उँगलियों की गर्माहट सूंघ लेती

बर्फ़ सा जमातीं

साँसें थमातीं 

कंपकंपी सौग़ात दे जाती हैं।


सर्द भोर में

बारिश भी अख़ड़े 

कि जैसे बाल मुड़े और ओले पड़े

डिगाए हिम्मत और साहस से लड़ें

गिराये पत्थर की सी बूँदें

जिधर मुड़ें उधर ही ढुन्ढे

चलाये ऐसे शस्त्र

भीग़ाये सारे वस्त्र

हड्डियों को थर्राये

लहू प्रवाह को थक़ाये।


पर हम भी बड़े ढीठ हैं

पिछली कई रातों की तरह

पैरासीटामोल का संग...एक और सही

खरासते गले से जंग...एक और सही

डूबते नाँव पे जमें रहना है...

होना अख़बार वाला।

अपनी ज़िम्मेदारियां ढोते रहना है...

होना अख़बार वाला।

ठंड, बारिश में चलते रहना है...

होना अख़बार वाला।


Kavi Pradeep Chauhan