शुक्रवार, 14 अगस्त 2020
बुधवार, 12 अगस्त 2020
निराशा : प्रदीप चौहान
तेरी ये लड़ाई तो ख़ुद से है,
दब रहा अपनों के सुध से है।
थामें रिश्ते जो शमशान भए,
अब तो टूट सारे अरमान गए।
तूने झोंका सर्वस्व अपनों के वास्ते,
ख़ंजर ही मिला उम्मीदों के रास्ते।
अच्छाइयाँ तेरी कमज़ोरी बनी,
क़ुर्बानियाँ किसी को नहीं भली।
हर आशा से तुझे मिली निराशा,
हर सपने से मिला दुःख बेतहाशा।
चुप छुपकर क्यों तड़पता है,
‘प्रदीप्त’ घुटकर क्यों मरता है।
निराशा भरी ये मटकी तोड़ दे,
थक गया गर तो जीना छोड़ दे।
गुरुवार, 7 मई 2020
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है। : प्रदीप चौहान
Kavi Pradeep Chauhan |
छिन गई तेरी रोज़ी रोटी
छिन गई तेरी पहचान
हे मेहनत की खाने वाले
लुट गया तेरा सम्मान
लाइनों में लग तु हाँथ फैलाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
तेरी मेहनत ने लोगों के घर बनाए
खून पसीनों से तूने महल सजाए
ख़ुद की छत के लिए जीवन भर तरसे
बेघर तेरा जीवन, बेघर तेरी क़िस्मत
तू बेघर ही मर जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
भगौड़ों के हज़ारों करोड़ माफ़ हो जाते
अमीरों को प्राइवेट जेट ले आते
तुम भुखमरी के मारो से
किराए वसूले जाते लाचारों से
चाहे पड़ जाते तेरे पैरों में छाले
हज़ारो मिल तु पैदल ही चलता रे
भूखा-प्यासा तु रास्ते में ही मारा जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
अर्थव्यवस्था की रफ़्तार के लिए
चंद घरानों के व्यापार के लिए
तुझे घर भी नहीं जाने दिया जाता है
तेरी मज़दूरी को मार कर
तेरे अधिकारों का संहार कर
तुझे बंधुआ मज़दूर बनाया जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
महामारी तेरा काल बन बैठा
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
सुविधावों की कमी जंजाल बन बैठा
ऑक्सीजन की कमी से तेरी सांसें थमती
संसाधनों के किल्लत से तेरी आँखें नमति
ये सिस्टम तेरा सब कुछ लूट ले जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
अब भी वक्त है जाग जाना होगा
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हालातों का ज़िम्मेदार कौन पहचानना होगा
मृत सिस्टम का, क्यों नहीं करता तू उपचार है
हो एकजुट, की व्यवस्था परिवर्तन की दरकार है
सब समझकर भी तू चुप हो जाता है
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।
बुधवार, 11 मार्च 2020
हे मन तु क्यों भटकता है? : प्रदीप चौहान
हे मन तु क्यों भटकता है?
जागे है मन पर बोझ लिये,
बन पिंजरे का पंक्षि तु जिये।
क्यों काटे है पंख उड़ान के,
हौसलों को बेड़ियों से बाँध के।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
तेरी ये लड़ाई तो ख़ुद से है,
तु मर रहा अपनों के सुध से है।
थामें रिश्ते जो शमशान भए,
जब टूट सब अरमान गए।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
रहे दूर तो हरपल तड़पे है,
रहे पास तो हरदम झड़पे है।
क्यों अकेले में भरता आहें,
तकती मंज़िल को तेरी राहें।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
सपनें अब चकनाचुर हैं,
टूट गए सब ग़ुरूर हैं।
किसी का तु क्या साथ देगा,
जब ख़ुद से मिलों दूर है।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
प्रेम तुझे नाख़ुश करे,
पैसा ना संतुष्ट करे।
ये कैसी भूख लग आइ,
हैवानियत तुझमे दुरुस्त करे।
हे मन तु क्यों भटकता है?
ज़िंदा रहकर क्यों मरता है?
सोमवार, 9 मार्च 2020
वो हर लम्हा याद आता है : प्रदीप चौहान
बंद करें जब पलकों को अपने,
चेहरा उसी का नज़र आता है।
ज़ुल्फ़ों की तंग गलियों में,
बार बार ये मन खोता है।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
हवा का हर झोंका,
ख़ुश्बू-ए-एहसास कराता है।
आहट बन अरदास उसकी,
यादों के आग़ोश में ले जाता है।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
बात बात पे उसका लड़ना,
बिन बात यूँ ही झगड़ना।
प्यार के हर लफ़्ज़ को,
टकटकी नज़रों से समझना।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
बिस्तर का वो कोना,
बेसुध हो कर उसका सोना।
बाज़ूओं को मेरे तकिया बना,
मदहोशि के आग़ोश में खोना।
वो हर लम्हा याद आता है,
वो... याद आता है।
मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019
इंसानियत का संहार : प्रदीप चौहान
कुछ हिन्दू बन रहे
कुछ मुसलमान बन रहे
भूलकर इंसानियत
ये शैतान बन रहे।
कुछ के निजी स्वार्थ हैं
कुछ का अपना इरादा है
मिटाकर आपसी भाईचारा
धार्मिक उदंड पे आमादा हैं।
कुछ के वोट हिन्दू हैं
कुछ के मुसलमानों का व्यापार हैं
वोट बाँट कि भ्रष्ट राजनिती में
कर रहे इंसानियत का संहार हैं।
अगर नहीं रोका इन्हें
तो उत्पात ये मचाएँगे
इंसानियत की चितावों पर
ये रोटियाँ पकाएँगे।
किया आँखो को बंद जिन्होंने
समस्या विकराल और बनाएँगे
मचेगा हैवानियत का तांडव अगर
अछूते वो भी नहीं रह पाएँगे।
आँखों में बसा जिनके क़ौम है
देखकर ये चिंगारी जो आज मौन हैं
वक़्त के गुनहगार वो कहलाएँगे
इंसानियत की मौत पर आँशु बहाएंगे।
बुधवार, 21 अगस्त 2019
मेरी बिटिया : प्रदीप चौहान
याद है वो कठिन समय जब
पापा या मम्मी का विकल्प था आया
पापा संग कोई नहीं रहेगा
सुन बिटिया ने मम्मी से हाथ छुड़ाया
लिपट के बोली पापा मैं आपके साथ रहूंगा
नन्ही की समझदारी देख आंख था भर आया।
उस रात बेटी नही सो पायी थी
चिंतित चेहरा, नम आंखें,
लबों पे न मुस्कान लाई थी
लिपट-लिपट कर चेहरा देखती
नींद न आने की व्यथा सुनाई थी।
"क्या मम्मी कभी नही आएगी?"
थर्राते लबों पे जब ये प्रश्न वो लाई थी
दिल पसीज गया आंखें भर आयी
लगाया गले प्यार से समझाया
बहला फुसला उसको था सुलाया।
उस दिन था बात ये समझ आया
बच्चों के बेहतर परवरिश के लिए
माता -पिता का साथ सबसे जरूरी
बेटी ने ये एहसास दिलाया।
हर माँ-पिता को कसम ये खाना होगा
छोटे छोटे झगड़ो को मिलकर सुलझाना होगा
बच्चों के भविष्य पर न पड़े कोई गलत प्रभाव
बेहतर खुशहाल परवरिश का माहौल बनाना होगा।
रविवार, 18 अगस्त 2019
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे : गुलशन ठाकुर
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
इस सावन की हरियाली में
हम सब मस्ती में झूम रहे हैं
हमें नहीं भूलना उन लम्हों को
जिस कारण आज जीवन में
हम खुशियों का दामन चूम रहे हैं
जहाँ ओस की बूँदें लगे थी मोती
वहाँ भँवरों के गुलशन अब कहाँ खिलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
वो मधुर सुगंधित मीठा बचपन
जब खेलते थे गुड्डे गुड़ियों संग
वो छुट्टी में नानी घर जाना
आमों की बगिया में उधम मचाना
जहाँ होती सब गलती माफ
वो स्नेह के आँचल अब कहाँ मिलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
वो कंधे पे बस्ता टाँगे जाना
फिर एक दूजे को खूब चिढ़ाना
वो प्रेम की रोटी और अंचार
था जिनके बिन जीवन बेकार
फिर जून की तपती धूप में
हम कोयल की कूँ कूँ कहाँ सुनेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
थी चौङी छाती सिंह की चाल
जब चार यार मिल करे धमाल
तब अल्हड़ मस्त जवानी थी
जीवन के हर दौर में
बस अपनी ही मनमानी थी
वो मौसम प्रेम कहानी के
अब हमें ओ यारा कहाँ दिखेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
कोई लौटा दो मेरे वो दिन
वो मस्ती बचपन की वो प्रेम के दिन
जो हो गई पूरी अपनी आस
हम तितली सा फिर उड़ चलेंगे
जो बीत गए जीवन के पल
वो फिर दोबारा कहाँ मिलेंगे
Gulshan Thakur
तब क्या करोगें ? : दिनेश
देश कि वर्तमान परिस्थिती पर एक सवाल
तब क्या करोगें ?
बंद फैक्टरीयां, बिक रहे कारखाने कई हजार,
जब नौजवां दर-दर भटके बेरोजगार, तब क्या करोगें ?
जल, जंगल, जमीन लूट गयी गरीब की, एक तरफ सत्ता और दौलत बेसूमार, तब क्या करोगें ?
हैं आधुनिक हथियार और हो मंगल का सरताज,
फिर भी जनता मरती सूखा और बाढ़, तब क्या करोगें ?
धर्म और मजहब मे उल्झा रहा आवाम,
सियासत का हैं ये बहुत पूराना व्यापार, तब क्या करोगें ?
लग जाती हैं बेडी़यां, सिल दी जाती हैं ज़बान,
जब बिगडते हालात पर पूंछे कोइ सवाल, तब क्या करोगें ?
*-दिनेश*
रविवार, 11 अगस्त 2019
एक प्रेम कहानी लिखें फिर कश्मीर में : गुलशन ठाकुर
इन वादियों की सुर्ख हवा में
देखो बस्ता कोई नूर है
जिसे धरती का हम स्वर्ग है कहते
क्यों सबकी पहुँच से ये दूर है
सोचना क्या है होगा ही वो
जो लिखा है तकदीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कशमीर में
क्यों अमन यहाँ सब लूट रहे हैं
खुद में लड़कर ही क्यों भला
हम टुकड़ों में यूँ टूट रहे हैं
कहाँ गए वो मौसम रूमानी
जहां बहता था झीलों में पानी
हर राँझा खोया रहता था
जहाँ अपनी प्यारी सी हीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में
लो हुई खत्म धारा 370
फीर एक नया कश्मीर बनाएं
जहाँ होते थे हमले आतंकी
वहाँ प्रगति का हम दीप जलायें
अब नही चलेगा पत्थर कोई
झूठे जिहाद की भीड़ में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में
सालों से Aदेखा जो सपना
आज हुआ है पूरा अपना
है आज दिवाली और ईद भी
किस्मत से आया ये शुभ दिन है
ऐसे ही नहीं कहती दुनिया
मोदी है तो मुमकिन है
है मिला कुशल प्रशासक हमको
इस मोदी से फकीर में
आओ मिलकर एक प्रेम कहानी
हम लिखें फिर कश्मीर में
शुक्रवार, 19 जुलाई 2019
मैं एक लड़की हूँ : गुलशन ठाकुर
ये कविता मेरे एक फेसबुक मित्र श्री गुलशन ठाकुर के द्धारा लिखी गई है और उनके फेसबुक पेज से ली गई है। ये कविता मेरे दिल के बहुत करीब है, इसे बार बार पढ़ने के साथ-साथ आप लोगों के साथ सांझां करने योग्य है।एक बार आप भी पढ़ें।
मैं एक लड़की हूँ
एक दर्द सा है मेरी आँखों में
जिसे ढकने की मैं कोशिश करती हूँ
क्या है कसूर इस दुनिया में मेरा
क्यों जीने को मैं पल पल मरती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
मुझे नहीं चाहिए धन दौलत
न हूँ मैं पत्थर की मूरत
बस लोग खिलौना समझे मुझको
फिर देवी रूप में पूजते किसको
जो मुझको सब हैं बेटी मानें
फिर क्यों अपनों से मैं पल पल डरती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
जिसने है तुमको बनाया
है उसने ही कन्या बनायी
फिर करते हो क्यों भेद जरा
ये तो सबको बतला दो भाई
जब मुझमें ही तुम देखो लक्ष्मी
फिर क्यों दहेज़ के ताने मैं
दुनिया से पल पल सहती हूँ
हाँ हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
बस मुझे चाहिए प्यार तुम्हारा
चाहे मिले न कोई और सहारा
मानो तुम सबको एक समान
प्यार तुम्हारा पाकर देखो
कैसे बनती है बेटी महान
न बहे किसी कन्या के आंसू
बस यही प्रार्थना मैं करती हूँ
है हूँ लड़की मैं हूँ लड़की
ये बात ख़ुशी से कहती हूँ
बेटियों पर गर्व करें शर्म नहीं
(श्री गुलशन ठाकुर)
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