Kavi Pradeep Chauhan |
Kavi Pradeep Chauhan |
बचपन की वो यादें हसीन थीं
दोस्तों के साथ वो बातें हसीन थीं।
उनकी खुशी में खुश रहते थे हम
उनकी दुःख में दुःखी रहते थे हम
तो फिर ये मोड़ कैसा था
जिसमे होना पडा जुदा हमे
पता तो था की मिलेंगे दोस्त हर मोड़ पर
लेकिन स्कुल की तो बातें
कुछ और थी
की वो दोस्त पुराने थे
निराले थे
दील लगाने वाले थे
बात चीत कर के हर मुश्किल को सुलझाने वाले थे
इस लिए तो वह दोस्त हमारे थे।
बचपन की वो यादें हसीन थीं
दोस्तों के साथ वो बातें हसीन थीं।
एक ख्वाब देखा,
जिसे पूरा करना है|
एक सपना है
जिसे अधूरा नहीं छोड़ना है |
रुकावटें तो कई आऐंंगी और जाएंगी
पर झुकना नहीं है|
एक सपना है
जिसे पूरा करना है|
एक ख्वाब देखा
जिसे पूरा करना है|
कहने वाले खुब कहेंगे,
पर सूनना नहीं है|
चाहे जितनी भी बार गिरे ,
खड़े होकर लक्ष्य को पाना है
साथ में खड़े हैं अपने,
जितनी भी बार गिरे हैं|
मेहनत कर
उस ख्वाब को पूरा करना है|
एक ख्वाब देखा
जिसे पूरा करना है |
ठंडी हवाएँ जब चेहरे से टकराती हैं
बिन बताए आँसू खिंच ले जाती हैं
कान पे पड़े तो कान सून्न
उँगलियों पे पड़े तो उँगलियाँ सून्न
दुखिया जूते का सुराख़ डूँढ लेती
उँगलियों की गर्माहट सूंघ लेती
बर्फ़ सा जमातीं
साँसें थमातीं
कंपकंपी सौग़ात दे जाती हैं।
सर्द भोर में
बारिश भी अख़ड़े
कि जैसे बाल मुड़े और ओले पड़े
डिगाए हिम्मत और साहस से लड़ें
गिराये पत्थर की सी बूँदें
जिधर मुड़ें उधर ही ढुन्ढे
चलाये ऐसे शस्त्र
भीग़ाये सारे वस्त्र
हड्डियों को थर्राये
लहू प्रवाह को थक़ाये।
पर हम भी बड़े ढीठ हैं
पिछली कई रातों की तरह
पैरासीटामोल का संग...एक और सही
खरासते गले से जंग...एक और सही
डूबते नाँव पे जमें रहना है...
होना अख़बार वाला।
अपनी ज़िम्मेदारियां ढोते रहना है...
होना अख़बार वाला।
ठंड, बारिश में चलते रहना है...
होना अख़बार वाला।
मैना है ये नैना है।
परियों से भी प्यारी है
माँ की नन्ही दुलारी है
ईश्वर की श्रेष्ठ रचना सी
मैना है ये नैना है।
गुमसूम सी ये रहती है
मन ही मन कुछ कहती है
अपनी ही मस्ती में खोई
मैना है ये नैना है।
सावन की ये रैना है
सुंदर सी मृगनैना है
धिर सी गम्भीर सी
मैना है ये नैना है।
बराबरी का हक़ हो इसको
अवसर मिलें जैसे सबको
पैरों पे खड़ी हो रही बहना है
मैना है ये नैना है।
हाथरस में रिपोर्टिंग के लिए अपने प्रवेश को तरसती, आज की मेन-स्ट्रीम मीडिया की लाचारी और इसके कारणों पर चिंतन करती ये कविता।
सत्ता की ग़ुलामी का फल
सरकारों की मेज़बानी फल
चाटूकारिता का भावी असर
आज भुगत रहा है मीडिया।
क़लम के टूटे सम्मान का फल
पत्रकारों के लूटे स्वाभिमान फल
पत्रकारिता के ख़त्म पहचान का असर
आज भुगत रहा है मीडिया।
ख़बरों से किए व्यापार का फल
जनता से किए व्यवहार का फल
टीआरपी को करते दुराचार का असर
आज भुगत रहा है मीडिया।
लोकतंत्र से सीनाज़ोरी का फल
सत्ता से किए गठजोरी का फल
चौथे स्तम्भ की कमज़ोरी का असर
आज भुगत रहा है मीडिया।
जनता के विश्वास की हत्या का फल
जनतंत्र के सम्मान की हत्या का फल
ख़बरों के हिंदुस्तान की हत्या का असर
आज भुगत रहा है मीडिया।
बेटियों को पढ़ाया
बहनों को निर्भर बनाया
माताओं को सम्मान दिलाया
परिवारों में जागरुकता फैलाया
हज़ारों सपनों को साकार बनाया
और लाखों नए सपनों के लिए
मैं चलना चाहती हुँ
मैं चलते रहना चाहती हुँ
अनाथों को अपनाया
बेसहारों को सम्भाला
असहायों का साथ निभाया
लाखों को शिक्षित बनाया
ये कर्तव्य रहा है मेरा
ये पहचान रही है मेरी
अपनी इसी पहचान के लिए
मैं चलना चाहती हुँ
मैं चलते रहना चाहती हुँ
मैं वही हुँ
जहाँ तुम्हारी ढेरों यादें जुड़ी हैं
यादें तुम्हारे बचपन की
यादें तुम्हारे लड़कपन की
दोस्ती के बड़प्पन की
यादें तुम्हारे पढ़ने की
यादें तुम्हारे खेलने की
साथियों के लंच लुटने की
वैसी ही हज़ारों नयी यादों के लिए
मैं चलना चाहती हुँ
मैं चलते रहना चाहती हुँ
आप जैसे अपनों के लिए
लाखों असहाय सपनों के लिए
भटकों को राह दिखाने के लिए
मजबूरों का साथ निभाने के लिए
बेसहारों के सहारे के लिए
शिक्षा रूपी उजाले के लिए
मैं चलना चाहती हुँ
मैं चलते रहना चाहती हुँ
मुझे ज़रूरत है
मेरे अपनों की
नए विचारों की
नए नवाचारों की
नए पहल की
क्योंकि मेरे अपनों के लिए
लाखों नए सपनों के लिए
मैं चलना चाहती हुँ
मैं चलते रहना चाहती हुँ
मैं शिक्षालय हुँ।
मैं दीपालय हुँ।
मैं विध्यालय हुँ।
तेरी ये लड़ाई तो ख़ुद से है,
Kavi Pradeep Chauhan |