सोमवार, 30 अगस्त 2021

हे मज़दूर।

भगौड़ों के हज़ारों करोड़ माफ़ हो जाते 
अमीरों को प्राइवेट जेट ले आते
 तुम भुखमरी के मारो से 
किराए वसूले जाते लाचारों से 
चाहे पड़ जाते तेरे पैरों में छाले
हज़ारो मिल तु पैदल ही चलता रे
भूखा-प्यासा तु रास्ते में ही मारा जाता है 
हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।

हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।


तेरी मेहनत ने लोगों के घर बनाए

खून पसीनों से तूने महल सजाए

ख़ुद की छत के लिए जीवन भर तरसे

बेघर तेरा जीवन, बेघर तेरी क़िस्मत 

तू बेघर ही मर जाता है 

हे मज़दूर तेरी कैसी ये गाथा है।

रविवार, 29 अगस्त 2021

पहचान : प्रदीप चौहान

कभी बेटा तो कभी भ्राता बन जाता हूं। 

कभी पति तो कभी पिता कहलाता हूं। 

कर्ज़ व फ़र्ज़ निभाते कई किरदार मेरे। 

पर खुद को कभी नहीं पहचान पाता हूं। 


गुरुवार, 26 अगस्त 2021

सिटीज़न जर्नलिज़्म अपनाना होगा : प्रदीप चौहान


ख़बरों का व्यापार हो रहा,
लोगों का विश्वास खो रहा।
मेन स्ट्रीम मीडिया सो रहा,
सत्ता की ग़ुलामी में खो रहा।
पत्रकार स्वाभिमान को रो रहा,
पत्रकारिता पहचान को रो रही।
खोई उसी पहचान के लिए,
ख़बरों के हिंदुस्तान के लिए,
क़लम को हथियार बनाना होगा।
सिटीज़न जर्नलिज़्म अपनाना होगा।

लोकतंत्र के बचाव के लिए,
सत्ता पर दबाव के लिए,
शक्ति के नियंत्रण के लिए ,
दबे कुचलों की आवाज़ के लिए,
जनता के विश्वास के लिए,
देश के सम्मान के लिए,
ख़बरों के हिंदुस्तान के लिए,
क़लम को हथियार बनाना होगा।
सिटीज़न जर्नलिज़्म अपनाना होगा।
सिटीज़न जर्नलिज़्म अपनाना होगा।

इंसानों को बचावो यारो : प्रदीप चौहान


कहीं आँक्सीजन की कालाबाज़ारी
कहीं बिलखती साँसों का व्यापार
बेबस जीवन का होता मोलभाव
दम तोड़ते इन्सान हैं लाचार
चंद रुपयों की ख़ातिर
हैवान ना बनते जाओ यारो।
इंसानियत रहेगी 
तो इंसान रहेंगे।
इंसानों को बचावो यारो।

कहीं इंजेक्शन की कालाबाजारी
कहीं दवाइयों का भ्रष्ट व्यापार
दर दर भटक रहे बेबस इंसान
लुट खसोट का फल रहा बाज़ार
चंद सिक्कों के ख़ातिर
अपने ज़मीर को न दफ़नावो यारो।
इंसानियत रहेगी 
तो इंसान रहेंगे।
इंसानों को बचावो यारो।

अस्पताल बेड्स से बिका घरौंदा
एम्बुलेंस ने बचा कुचा भी रौंदा
ज़िंदा इंसानों को नोंचते ये गिद्ध
शमशान की लकड़ियों का करते सौदा
लालची मंसूबों के ख़ातिर
नरभक्षि ना बनते जाओ यारो।
इंसानियत रहेगी 
तो इंसान रहेंगे।
इंसानों को बचावो यारो।

मेरा देश मर रहा है।
बद-इंतज़ामी से जल रहा है
सुलग रही चितायें हर तरफ
बिलख रही आत्माएँ हर तरफ
बेबस लाचार हर इंसां यहाँ
अव्यवस्था की सुली चढ़ रहा है।
राजनीतिक आकांक्षाओं के ख़ातिर
मौत का तांडव न मचावो यारो।
इंसानियत रहेगी 
तो इंसान रहेंगे।
इंसानों को बचावों यारों।

प्रदीप चौहान

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं: प्रदीप चौहान


बच्चे नौजवां अब खेलते सट्टा
कहीं छलकाते ज़ाम कहीं सुट्टा
नई नस्ल हुई बेपरवाह सब चुप हैं,
भावी पीढ़ी हुई तबाह सब चुप हैं।
अंधे अभिभावकों की ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

अत्याचार झेलते कर आंखें बंद
हर एक मार झेलते बन अपंग।
काम के घंटे बढ रहे सब चुप हैं,
तनख्वाहें घट रहीं सब चुप हैं।
मृत करदातावों की ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

निजीकरण की पड़ रही मार,
देश की संपत्ति बेच रही सरकार।
ऐरपोर्टस बैंक बेचे सब चुप हैं,
रेलवे हाइवे बेचा सब चुप हैं।
बेजुबां नस्ल बुझदिल ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

ना थिरकते किसी की बारात पर 
ना  सिसकते  किसी वारदात पर।
देख अन्याय ये करते आंखें बंद
ज़मीर की आवाज़ पड़ रही मंद।
शरीफ मुखौटों में स्वार्थी ये कौम है,
गुनाहगार वो हैं जो आज मौन हैं।

गुरुवार, 19 अगस्त 2021

तुम आई : प्रदीप चौहान

तुम आई!

एक आत्म द्वंद्व था मेरे अंदर
सीने में ख्वाबों का समंदर
एक पीड़ा अन-कही सी
एक वीणा अन-सुनी सी
खुद ही में उलझा सा
स्वयं अनसुलझा सा
फिर... 
तुम आई!

जी रहा था मै
आत्मा में कई टिस लिए
बेजुबां कई चीख लिए
बेपनाह खींस लिए
मुखौटा भीख लिए
था आत्मग्लानि में डूबा इंसान
शून्य हुआ था स्वाभिमान
फिर... 
तुम आई!

तुम आई 
बन जीवन संगिनी 
मिन्नत में मुझे चुना
शिद्दत से मुझे सुना
समझा मेरे वजुद को
अंदर के मकसूद को 
मुझमें से मुझे निकाला
द्वन्दित आत्मा खंगाला
पग पग साथ निभाया
हर पल हिम्मत बढ़ाया
बन मेरी जीवन "कविता"
मुझमे "प्रदीप्त" जगाया!

तुम्हारा आना ही,
मेरा आना था!
मेरा वर्तमान था! 
मुझमे, मैं था!

Dedicated to my wife on our anniversary

रविवार, 18 जुलाई 2021

स्लम एक सज़ा : प्रदीप चौहान

माँ-बहनें टंकियों से जब भीख मांगती हैं
भाई-बेटों के मरे ज़मीर की सजा काटती है।

गिड़गिड़ाहट के शब्द जब लबों पे सजती है
राखी व दूध के कर्ज़ चुकाई को तरसती है।

घूंघट में पत्नियां जब खुले में शौच चलती हैं
अपनों के मरे सम्मान का अपमान सहती हैं।

बैठ बच्चे गली मौहल्लों में जब पार्क को तकते हैं
भाइयों के बेरुखी से शारीरिक मजबूती को तरसते हैं।

अवैध शराब से जब जवां नशे में लिप्त झूमते हैं
अभिभावकों की नाकामी से कलह उपजते हैं।

किशोर जब चोरी,झपटमारी, शॉर्टकट चुनते हैं
माँ पिता के असफल परवरिश की पोल खोलते हैं।

चंद बिगड़ैल जब खुले में कोई जुर्म रचते हैं
तमाशबीन गुनहगारों की नामर्दगी से बढ़ते हैं।

मंगलवार, 29 जून 2021

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा : प्रदीप चौहान









वक़्त तु ज़ुल्म इतना ना कर

यूँ बेरहमी की इंतहां ना कर

माना लाचार हैं हम तेरी मार से 

पर नहीं रुकेंगे क्षणिक हार से 

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।


माना तैयारियाँ कम पड़ गई

अपनी ही साँसे मंद पड़ गई

आँखों में आँसुओं की धार है

शमशनों में विकराल क़तार है

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।


अभी तो हमने कुछ किया ही नहीं

जीवन का हर रंग जिया ही नहीं

अपनों से किए वादे अभी अधूरे हैं

कई सपने हुए ही नहीं अभी पुरे हैं

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।


इतनी जल्दी नहीं हारेंगे हम

हर अपने को सम्भालेंगे हम

तेरे हमलों से लड़ेंगे फिर इकबार

ख़ुद को खड़ा करेंगे फिर इक़बार

जीने का जज़्बा हमें उठाएगा

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।

हे बुरे वक़्त तु गुज़र जाएगा।

शनिवार, 13 मार्च 2021

तेरे माथे पर वो छोटी सी बिंदी : अमित सिंह

 


तेरे माथे पर वो छोटी सी बिंदी मुझे अच्छी लगती है 

तू हस्ती रहा कर हस्ती मुस्कुराती मुझे अच्छी लगती है 


तेरी हर एक अदा अदा कि सादगी मुझे अच्छी लगती है

तेरे होठों की हंसी आंखों की शरारत मुझे अच्छी लगती है 


नजरे मिलाती नजरे चुराती नजरों की आवारगी मुझे अच्छी लगती है

तेरी नजरो की मेरी नजरो से वो हर मुलाकात मुझे अच्छी लगती है 


जीन्स से ज्यादा तु सूट सलवार में मुझे अच्छी लगती है

तेरे हाथों मे कंगन की खनखनाहट मुझे अच्छी लगती है 


तेरे कानों की बालियां नाक की नथनी मुझे अच्छी लगती है

तू मुझे एक बात पर नहीं हर बात पर अच्छी लगती है 


सावन कि बरसात मे तु भीगती मुझे अच्छी लगती हे

सर्दी कि धुप में बालों को संवारती तु मुझे अच्छी लगती है 


इठलाती बलखाती इतराती तु मुझे अच्छी लगती है

तेरे होठों की हंसी चहरे पर रोनक मुझे अच्छी लगती है 


तेरे माथे पर वो छोटी सी बिंदी मुझे अच्छी लगती है 

तू हस्ती रहा कर हस्ती मुस्कुराती मुझे अच्छी लगती है,

गुरुवार, 11 मार्च 2021

जीवित रहना जंग है : प्रदीप चौहान

Kavi Pradeep Chauhan


अर्थव्यवस्था मंद है

महँगाई भई प्रचंड है

ग़रीब झेलता दंड है

जीवित रहना जंग है।


जेब सबके तंग हैं

कमाई हुई बंद है

ज़िंदगी कटी पतंग है

जीवित रहना जंग है।


कुछ घराने दबंग हैं

हर सत्ता उनके संग है

बेशुमार दौलती रंग है

जीवित रहना जंग है।


शासन सत्ता ठग है

बेइमानी बसा रग है

लूट-खसोट का जग है

जीवित रहना जंग है।


भावी पीढ़ी मलँग हैं

सुलगते नफ़रती उमंग हैं

बढ़ते धार्मिक उदंड हैं

जीवित रहना जंग है।


बेरोज़गारी भुज़ंग है

बेकारी करे अपंग है

हर जवाँ हुनर बेरंग है

जीवित रहना जंग है।


मज़दूर किसान तंग है

आन्दोलन पर बैठे संग है

कारपोरेट गोद में संघ है

जीवित रहना जंग है।


बुधवार, 10 मार्च 2021

भार : प्रदीप चौहान

 हद से ज्यादा भार लेकर दौड़ा नहीं जाता 

साथ सारा संसार लेकर दौड़ा नहीं जाता ।

दौड़ो अकेले अगर पानी है रफ़्तार

जिम्मेदारियों का पहाड़ लेकर दौड़ा नहीं जाता।



बदलाव : प्रदीप चौहान

 अकेले चल  इंसान बदल जाते हैं

ले साथ चलें  तो बदलाव लाते हैं।

उस  सफलता  के  मायने  ही  क्या

जिसे पाते ही अपने पीछे छूट जाते हैं।



Kavi Pradeep Chauhan